Sunday, December 5, 2010

संसार में अतुलनीय हैं गौमाता

सारे भारत में कहीं भी चले जाइए और सारे तीर्थ स्थानों के देवस्थान देख आइए। आपको किसी मंदिर में केवल श्री विष्णु भगवान मिलेंगे, किसी मंदिर में श्री लक्ष्मी नारायण दो मिलेंगे। किसी में सीता राम लक्ष्मण तीन मिलेंगे तो किसी मंदिर में श्री शंकर पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, भैरव, हनुमान जी इस प्रकार छः देवी-देवता मिलेंगे। अधिक से अधिक किसी में दस-बीस देवी-देवता मिल जाएँगे, पर सारे भूमंडल में ढूँढ़ने पर भी ऐसा कोई देवस्थान या तीर्थ नहीं मिलेगा जिसमें हजारों देवता एक साथ हों।
ऐसा दिव्य स्थान, ऐसा दिव्य मंदिर, दिव्य तीर्थ देखना हो तो बस, वह आपको गोमाता से बढ़कर सनातनधर्मी हिंदुओं के लिए न कोई देव स्थान है, न कोई जप-तप है, न ही कोई सुगम कल्याणकारी मार्ग है। न कोई योग-यज्ञ है और न कोई मोक्ष का साधन ही। 'गावो विश्वस्य मातरः' देव जिसे विश्व की माता बताते हों उस गौमाता की तुलना भला किससे और कैसे की जा सकती है?
जिस प्रकार तीर्थों में तीर्थराज प्रयाग हैं उसी प्रकार देवी-देवताओं में अग्रणी गोमाता को बताया गया है। 'ब्रह्मावैवर्तपुराण' में कहा गया है-
गवामधिष्ठात्री देवी गवामाद्या गवां प्रसूः।
गवां प्रधाना सुरभिर्गोलोके सा समुद्भवा।
अर्थात्‌ गौओं की अधिष्ठात्री देवी, आदि जननी, सर्व प्रधाना सुरभि है। समुद्र मंथन के समय लक्ष्मी जी के साथ सुरभि (गाय) भी प्रकट हुई थी। ऋग्वेद में लिखा है-
'गौ मे माता ऋषभः पिता में
दिवं शर्म जगती मे प्रतिष्ठा।' 
गाय मेरी माता और ऋषभ पिता हैं। वे इहलोक और परलोक में सुख, मंगल तथा प्रतिष्ठा प्रदान करें।
हमारे धर्मशास्त्रों के अनुसार भगवान का अवतार ही गौमाता, संतों तथा धर्म की रक्षा के लिए होता है। 
गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं-

'विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गोपार।' 

गौमाता में हैं समस्त तीर्थ

गाय, गोपाल, गीता, गायत्री तथा गंगा धर्मप्राण भारत के प्राण हैं, आधार हैं। इनमें मैं गौमाता को सर्वोपरि महत्व है। पूजनीय गौमाता हमारी ऐसी माँ है जिसकी बराबरी न कोई देवी-देवता कर सकता है और न कोई तीर्थ। गौमाता के दर्शन मात्र से ऐसा पुण्य प्राप्त होता है जो बड़े-बड़े यज्ञ दान आदि कर्मों से भी नहीं प्राप्त हो सकता। 

जिस गौमाता को स्वयं भगवान कृष्ण नंगे पाँव जंगल-जंगल चराते फिरे हों और जिन्होंने अपना नाम ही गोपाल रख लिया हो, उसकी रक्षा के लिए उन्होंने गोकुल में अवतार लिया। शास्त्रों में कहा है सब योनियों में मनुष्य योनी श्रेष्ठ है। यह इसलिए कहा है कि वह गौमाता की निर्मल छाया में अपने जीवन को धन्य कर सकते हैं। गौमाता के रोम-रोम में देवी-देवताओं का एवं समस्त तीर्थों का वास है। 

गोमाता को एक ग्रास खिला दीजिए तो वह सभी देवी-देवताओं को पहुँच जाएगा। इसीलिए धर्मग्रंथ बताते हैं समस्त देवी-देवताओं एवं पितरों को एक साथ प्रसन्न करना हो तो गोभक्ति-गोसेवा से बढ़कर कोई अनुष्ठान नहीं है। 

भविष्य पुराण में लिखा है गोमाता कि पृष्ठदेश में ब्रह्म का वास है, गले में विष्णु का, मुख में रुद्र का, मध्य में समस्त देवताओं और रोमकूपों में महर्षिगण, पूँछ में अन्नत नाग, खूरों में समस्त पर्वत, गौमूत्र में गंगादि नदियाँ, गौमय में लक्ष्मी और नेत्रों में सूर्य-चन्द्र हैं। 

भगवान भी जब अवतार लेते हैं तो कहते हैं- 
'विप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार।'

Saturday, November 13, 2010

विद्यार्थियों और आम लोगों को गौ-विज्ञान के बारे में जानकारी होना आज की आवश्यकता

देश के शिक्षा पाठ्यक्रमों में ‘आदर्श भारतीय गौविज्ञान’ का कोर्स लागू हो- 
सुरेश कुमार सेन ;भीलवाड़ा

भारतवर्ष पर गुलामी के काल खण्ड में आक्रान्ताओं ने कई सांस्कृतिक मानबिन्दुओं पर सुनियोजित आक्रमण किये। जिसमें शिक्षा का क्षैत्र सर्वाधिक प्रभावित हुआ। एक समय तो ऐसा भी रहा था जब विदेशों से विद्यार्थी भारत आकर अध्ययन किया करते थे। श्रेष्ठ शिक्षा के कारण सैकड़ों आक्रमण होने के बाद भी हमारे देश को कोई मिटा नहीं पाया। परन्तु बड़ी विडम्बना है कि स्वतन्त्राता के 63 वर्षो के बाद भी हमारे शिक्षा पाठ्यक्रमों में भारतीय संस्कृति की आधार गौमाता के वैज्ञानिक, धर्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक महत्व के बारे में कोई जानकारी नहीं है। जहा तक मेरी जानकारी है, वर्तमान में सम्पूर्ण भारत वर्ष में कहीं पर भी किसी भी राज्य में कक्षा एक से लेकर बी.ए., बी.काम तक गौमाता के बारे में कोई पाठ या कोर्स नहीं है। हमने ग्रंथों में ऐसा पढ़ा है कि गाय के गोबर में लक्ष्मी का वास होता है परन्तु उसी लक्ष्मी के लिए हमें सहयोग मांगना/लेना पड़ता है। गौशालाए खोलनी पड़ती है। गौशालाओं के लिए दान, चंदा एकत्रा करना पड़ता है। 

स्वतंत्रता के पहले से आज तक गोहत्याबंदी के लिए कई आंदोलन चल रहै है। कई कत्लखानों के सामने आज भी अखण्ड धरने  जारी है। कई संत गोहत्याबदी में ही लगे हुए है। फिर  भी अपने देश में सरकारी अनुदान और सहयोग पर हजारों की तादाद में कत्लखाने धड़ल्ले  से  चल रहै है, जिनमें हजारों की संख्या में प्रतिदिन गोहत्याएं हो रही है। ऐसा क्यों ? इस पर विचार करने पर ध्यान में आता है कि हमें गाय के आर्थिक और वैज्ञानिक पक्ष की जानकारी से दूर कर दिया गया हैं। हमें इसके नकारात्मक गुण बता कर विदेशी नस्ल की गायों और भैंसो को अध्कि महत्वपूर्ण बताया गया है। जिस कारण हम देशी गाय से दूर होते चले गये। यदि हमें गाय के आर्थिक और वैज्ञानिक पक्ष की सही सही जानकारी होती तो सर्वगुण सम्पन्न गौमाता के बारे में ये प्रयास नहीं करने पड़ते। 

इतना होते हुए भी वर्तमान में देशी गाय के प्रति आम व्यक्तियों का चिंतन बदल रहा है। देशी गाय के दूध्, दही, घी, गोबर व गौमूत्र का प्रयोग कई प्रकार की असाध्य बिमारियों में लाभदायक सिद्ध हो चुका है। गाय का पालन करके मनुष्य सभी मनौकामनाओं की पूर्ति कर सकता है। गोसेवा से भी मनवान्छित पफल पाये जा सकते है। हमारे समाज में आज भी गाय के प्रति धर्मिक भावनाएं बहुत अच्छी है। ग्यारस/अमावस के दिन गायों का चारा देना, भोजन से पहले गाय के लिए गौग्रास निकालना, गौशालाओं के लिए आर्थिक सहयोग करना आदि अनेक उदाहरणों के चलते गाय के प्रति धार्मिक भावनाएं बनी हुई है। 

कुत्ते को लावारिस क्यों नहीं छोड़ा जाता - कोई भी व्यक्ति अकाल में अपनी भैंस को लावारिस नहीं छोड़ता है। भैड़, बकरी और अपने कुत्ते तक को लावारिस नहीं छोड़ते है परन्तु सर्वगुण सम्पन्न गौमाता को अकाल में सबसे पहले लावारिस छोड़ दिया जाता है। पाश्चात्य शिक्षा का यह सबसे बड़ा घृणित नमूना है। देशी गोवंश के बजाय जर्सी या हालीस्टन गाय रखना, देशी गाय के बजाय भैंस को पालना, कृषि कार्य में बैलों के बजाय ट्रेक्टरों का उपयोग लेना, खेती में गोबर के बजाय राशायनिक खादों का प्रयोग करना, स्वदेशी के बजाय विदेशी वस्तुओं का प्रयोग करना आदि हम अपने दैनिक जीवन में हजारों उदाहरण अपने सामने घटित होते देख सकते है। जब हम इस विषय पर विचार करते है तो हमें लगता है कि हम गौमाता से दूर होते चले गये है। हमें इस प्रकार मजबूर कर दिया गया कि हम स्वतः देशी गाय का चिंतन छोड़ने लग गये। 

कटु सत्य - एक बात तो सत्य है कि जब तक हम गौमाता के बारे में पढ़ेगें या जानेगें नहीं तब तक हम गोमाता को पालने या रक्षा करने के बारे में भी नहीं सोचेगें। मैं जब तक देशी गाय के महत्व के बारे कुछ भी नहीं जानता था तब तक देशी गाय के बजाय जर्सी या हालीस्टन गाय रखने के लिए ही खूब भाषण दिया करता था। परन्तु जबसे मैंने गौमाता के महत्व को समझा उसके बाद कभी भी गलती से भी विदेशी नस्ल को अपनाने के लिए नहीं कहा। गौपालन बहुत सरल है। केवल मानसिकता गौपालन की होनी चाहिए। आज शहर में रहते हुए भी मैनें गाय पाल रखी है। मेरा पूरा परिवार गोभक्त हो गया है। गाय हमारे परिवार की एक सदस्य है। चारे पानी के अलावा गाय को भी वे सब चीजें दी जाती है जो हम काम में लेते हैं। जैसे चाय के समय चाय, खाने के समय रोटी, सुबह सुबह गुड़ रोटी, पानी में प्रतिदिन नमक का प्रयोग आदि । ये सब गाय का महत्व जानने के बाद ही संभव हो सका। 

गौविज्ञान परीक्षा का अभिनव प्रयोग- परिपक्व लोगों को गोमाता के बारे में समझाना थोड़ा कठिन है। क्योंकि बड़े लोग उसी बात को समझेगें जिसे वे समझना चाहते है या यू कहें - उन्हैं अपना स्वार्थ जिसमें लगता है उस बात को ही वे समझना चाहते है। यदि गौमाता की बात बच्चो को समझाई जावे तो निश्चित ही आज नही तो कल लाभ अवश्य होगा। सो वर्ष 2008 में मैंने एक विशेष प्रयोग किया। गौमाता की रक्षार्थ एक सकारात्मक पहल प्रांरभ की और स्कूली छात्रों को गौमाता के कुछ अच्छे गुणों का संकलन कर विद्यार्थियों को उपलब्ध् कराये। आकर्षक नकद पुरस्कारों के कारण मैंने पाया कि विद्यार्थी इस परीक्षा में अत्यध्कि उत्साह से भाग ले रहै थे। शिक्षक/अध्यापक तो मानों इस परीक्षा का इंतजार ही कर रहै थै। हमारा प्रयास यह है कि बच्चों को यदि सर्वगुण सम्पन्न देशी गाय के बारे में श्रेष्ठ जानकारी मिलेगी तो भविष्य में देशी गौवंश को बचाने में सफलता  जरूर मिलेगी। अपने जीवन में छात्र जहा भी होगा वह गोमाता की चिंता जरूर करेगा। इसलिए स्कूलों के माध्यम से छात्रों को देशी गौवंश एंव गौउत्पादों की आर्थिक और वैज्ञानिक दृष्टि से उपयोगिता तथा गौमाता के धर्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक महत्व की जानकारी कराने हेतु ये परीक्षाएं आयोजित की जा रही है। 

गौविज्ञान परीक्षाएं क्यों ? वर्तमान शिक्षा पाठ्यक्रमों में भी विद्यार्थियों को देशी गाय के बारे में कहीं पर भी ठीक प्रकार से जानकारी नहीं दी जा रही है। गाय का दूध  पीला क्यों होता है, गाय का घी पीला क्यों होता है, दस ग्राम गाय के घी से हवन करने पर कितनी आक्सीजन बनती है, इसका वैज्ञानिक कारण क्या है ? आदि सामान्य बातें भी बच्चे, आप और हम नहीं जानते है। 

परीक्षा से परिणाम-कोरे कागज की भाति स्वच्छ बाल मन वाले बच्चों को यदि देशी गोवंश के बारे में ठीक प्रकार की नई नई वैज्ञानिक जानकारी मिलेगी तो भविष्य में बच्चे बड़े होकर गौमाता की सुरक्षा के बारे में अवश्य विचार करेगें। हम इस परीक्षा के माध्यम से छात्रों और उनके परिवार जनों को गौमाता के बारे में कई प्रकार की नई नई जानकारी कराने में सफल  होगें। शिक्षा पाठ्यक्रमों में भी ‘आदर्श भारतीय गौविज्ञान’ का विषय सामिल कराने के प्रयास होगे। 

सफल  प्रयोग - राजस्थान में यह परीक्षा पहली बार भीलवाड़ा में दिनांक 14 नवम्बर 2008 को आयोजित हुई जिसमे लगभग 12,500 विद्यार्थियों ने भाग लिया। दूसरे गत वर्ष दिनांक 2 अक्टूबर 2009 को राजस्थान के 20 जिलों के 64,500 विद्यार्थियों ने भाग लिया। इस वर्ष 2010 में इस परीक्षा को अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित किया जा रहा है। इस परीक्षा की पुस्तक के माध्यम से कई शिक्षकों को भी गौमाता के बारे में पहली बार नई नई जानकारिया मिली। परीक्षा के कारण कई लोगों ने गाय को बेचने का मन बदल कर घर में गाय को पालने का मन बना लिया। 

परीक्षा कैसे - इस वर्ष भारतीय गौविज्ञान परीक्षा दि. 22.10.2010 महर्षि वाल्मिकी जयन्ति के दिन अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित होगी। इस परीक्षा की पुस्तक को कक्षा 6 से 12 वी. तक के विद्यार्थी सरलता से पढ़ सकते है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद विधार्थियों से एक परीक्षा ली जाती है। इन पुस्तकों को स्कूलों में सशुल्क वितरण किया जाता है। स्कूलों के प्रधानाचार्य  और शिक्षक इस कार्य में बहुत रूचि लेते है। पुस्तकें वितरण के कुछ समय बाद प्रश्नपत्र दिये जाएगें और बाद में निधरित तिथि को यह परीक्षा होगी। परीक्षा सम्पन्न होने के बाद स्कूलों से प्रश्नपत्रों को वापस एकत्र कर मुख्यालय भिजवा दिये जाते है। प्राप्त प्रश्नपत्रों के परिणाम अनुसार छात्रों को स्कूल प्रांत स्तर पर/ जिला स्तर पर/ तहसील स्तर पर प्रथम/द्वितीय/तृतीय स्थान प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों और परीक्षा में सहयोग करने वाले शिक्षकों को अभिनंदनपत्र प्रदान कर सम्मानित किया जाता है। 

परीक्षा शुल्क- इस परीक्षा का शुल्क 20 रू. ;सहयोग राशि रखा है। जिसमें परीक्षा आवेदन फार्म, परीक्षा पुस्तक, प्रश्नपत्र, प्रमाणपत्र और नकद पुरस्कार व अन्य कई प्रकार के पुरस्कार प्रदान किये जाते है। इस परीक्षा आयोजन में किसी भी प्रकार के राजनैतिक/ सामाजिक/ आर्थिक लाभ की लेश मात्र भी कामना नहीं है। सभी कार्य लागत मूल्य पर ही किये जाते है। 

पुरस्कारों की जानकारी- प्रांत व जिला स्तर पर सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को कई नकद व अन्य पुरस्कार प्रदान किये जाते है। विद्यालय स्तर पर सर्वाधिक अंक प्राप्त करने वाले प्रथम, द्वितीय, तृतीय परीक्षार्थीयों को पुरस्कार और प्रमाणपत्र तथा परीक्षा में भाग लेने वाले सभी परीक्षार्थियों को आकर्षक प्रमाण पत्र दिये जाते है। परीक्षा में सहयोग करने वाले संस्था प्रधानो  एंव परीक्षा प्रभारियों को आकर्षक प्रोत्साहन एंव अभिनंदन पत्र प्रदान किये जाते है। 

परीक्षा कब तक - देश के शिक्षा पाठ्यक्रमों में ‘आदर्श भारतीय गौविज्ञान’ का कोर्स लागू होने तक भारतीय गौविज्ञान परीक्षाएं आयोजित कराई जाएगी। 

विनम्र अनुरोध - हर गोभक्त कार्यकर्ता को प्रयास करके इस गौविज्ञान परीक्षा रूपी महायज्ञ में अपनी आहूति अवश्य देनी चाहिए। अपने आस पास की 100-150 स्कूलों में इस परीक्षा को आयोजित कराने का प्रयास करना चाहिए। जो व्यक्ति निजी विद्यालय संचालित करते है या शिक्षक है वे इस परीक्षा को प्रयासपूर्वक अवश्य आयोजित करावें। योजनापूर्वक कार्य करने पर हजारों छात्रों को सरलता से परीक्षा दिलाई जा सकती है। 

परीक्षा सम्बन्धी अधिक जानकारी के लिए 094140.13214 पर सम्पर्क किया जा सकता है। 
प्रेषक- सुरेश कुमार सेन 
राष्ट्रीय परीक्षा संयोजक 
बी-324, सुभाषनगर, भीलवाड़ा ;राज.
311001, मो.-94140.13214 

‘गावो विश्वस्य मातरः’ पाक्षिक पत्रिका...

‘गावो विश्वस्य मातरः’ पाक्षिक पत्रिका....
गौमाता के धर्मिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक महत्व की जानकारी आम लोगों को कराने के पवित्र उद्देश्य ‘गावो विश्वस्य मातरः’ पाक्षिक समाचार पत्र का प्रकाशन भीलवाड़ा से किया जा रहा है। 

इस पत्रिका में सदैव नये नये प्रयोग, अनुसन्धान, अनुभव तथा नवीनतम दुर्लभ जानकारियों का समावेश होता है जो अत्यन्त उपयोगी और लाभदायक होती है। गौविज्ञान, गौउत्पाद जैसे गाय के दूध्, दही, घी, गोबर और गौमूत्र की उपयोगिता, इसके प्रयोग के तरीके सहित सैकड़ों जानकारियां आप इस पत्रिका के माध्यम से जान सकते है। इस पत्रिका के प्रकाशन का कार्य पूर्ण रूप से अव्यवसायिक है। इष्ट मित्रों सहित इसकी सदस्यता के लिए आपसे अनुरोध् है। 

इसका स्थायी सदस्यता शुल्क- 1500 रू. एंव वार्षिक शुल्क- 200 रू. ‘भारतीय गौविज्ञान शौध् संस्थान, भीलवाड़ा’ के नाम डी.डी./मनीआर्डर/एस बी आई के बैंक खाते नं. 31162135524 से सीधे जमा करा कर सूचना निम्न पत्ते पर भिजावें।

सम्पादक ‘गावो विश्वस्य मातरः’
बी-324, सुभाषनगर, भीलवाड़ा (राज.)
311001, मो. 94140-13214 

भारतीय गौविज्ञान परीक्षा

गौसम्पदा के विशेषांक प्रकाशन पर हार्दिक शुभकामनांए


अखिल भारतीय स्तर पर सरकारी/ गैरसरकारी स्कूलों के माध्यम से विद्यार्थियों को देशी गौवंश की आर्थिक और वैज्ञानिक दृष्टि से उपयोगिता की जानकारी कराने हेतु प्रयासरत अव्यवसायिक संस्थान।  कार्यकर्ताओं को परीक्षा सामग्री बिना लाभ पर उपलब्ध् कराई जाती है। 

अधिक जानकारी के लिए मो. 94140-13214 सम्पर्क करें।
सुरेश कुमार सेन 
राष्ट्रीय संयोजक, भारतीय गौविज्ञान परीक्षा 
कार्यालय- बीः324, ‘अभयधाम’ सुभाषनगर भीलवाड़ा 
राज.( ३११००१) मोबाइल-94140-13214

Saturday, August 21, 2010

आनन्दवन पथमेडा मॅ गौ वत्स पाठ्शाला का आयोजन

युवाऑ के सर्वांगिण विकास और उनमॅ आध्यात्मिकता और गौसेवा के भाव विकसित करने के लिये श्री गोधाम महातीर्थ आनन्दवन पथमेडा मॅ हो रहा हैं गौ वत्स पाठ्शाला का आयोजन 

विश्व मॅ पहली बार नवाचार करके युवाऑ को भारतीय संस्कृति एवम उसमे गौमाता के महत्व और उपादेयता और आवश्यकता के बारे मॅ जानकारी देने के साथ साथ उनका संस्कारयुक्त सर्वांगिण विकास करने के उद्देश्य से दिनाक 17 से 21 जून 2010 तक परम भागवत गौऋषि पूज्य स्वामी श्रीदतशरणानन्द्जी महाराज की पावन प्रेरणा एवम परम पूज्य मलूक पीठाधीश्वर द्वाराचार्य श्री राजेन्द्रदास जी महाराज ( वृन्दावन धाम ) के पावन सानिध्य एवं मार्गदर्शन मॆ पथमेडा मॅ आयोजित किया जा रहा है! इस कार्यक्रम मॆ युवा साथियो के लिये विभिन्न कार्यक्रम होंगे! ज़िसमे प्रतिदिन परम पुज्य संत श्री गोपालमणिजी महाराज द्वारा “गौ महिमा” पर प्रवचन, परम पूज्य प. श्री विजयशंकरजी मेहता द्वारा विशेष प्रवचन (महाभारत, रामायण व ग़ौ भक्ति) के अतिरिक्त भगवान श्री कृष्ण की अद्भुत झांकियॉ के दर्शन के साथ महाराष्ट्र के वारकरी वैष्णव भक्तो द्वारा नृत्यमय भजन गायन व वादन और श्री गोविन्द जी भार्गव (कानपुर निवासी) अपनी मधुर वाणी मॅ भजन संध्या मॆ प्रस्तुतिया देंगे ! इन सबके अतिरिक्त समस्त युवाओ को परम पुज्य बाल व्यास श्री राधाकृष्णजी महाराज का पूर्ण सानिध्य प्राप्त होगा 

पथमेडा एक परिचय 
आनंदवन पथमेड़ा भारत देश की वह पावन व मनोरम भूमि है जिसे भगवान श्री कृष्ण् ने कुरूक्षेत्र से द्वारिका जाते समय श्रावण,भादो महिने में रूककर वृन्दावन से लायी हुई भूमण्डल की सर्वाधिक दुधारू, जुझारू, साहसी, शौर्यवान, सौम्यवान, ब्रह्मस्वरूपा गायों के चरने व विचरने के लिए चुना था। गत 12 शताब्दियों से कामधेनु, कपिला, सुरभि की संतान गोवंश पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिये सन् 1993 मे राष्ट्रव्यापी रचनात्मक गोसेवा महाभियान का प्रारम्भ इसी स्थान से हुआ है।

जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम श्री गोपाल गोवर्धन गोशाला श्री गोधाम महातीर्थ की स्थापना कर पश्चिमी राजस्थान एवं उतर पश्चिमी गुजरात के विभिन्न क्षेत्रों में गोसेवा आश्रमों, गोसंरक्षण केन्द्रों तथा गोसेवा शिविरों की स्थापना करना प्रारम्भ किया। इस अभियान द्वारा गोपालक किसानों तथा धर्मात्मा सज्जनों के माध्यम से गोग्रास संग्रहित करके गोसेवा आश्रमों में आश्रित गोवंश के प्राण पोषण का निरन्तर प्रयास प्रारम्भ हुआ। उपरोक्त महाभियान के प्रथम चरण में क्रूर कसाइयों के चंगुल से तथा भयंकर अकाल की पीड़ा से पीड़ित लाखों गोवंश के प्राणों को संरक्षण मिल सका।

श्री गोधाम महातीर्थ की स्थापना से लेकर आजतक अत 17 वर्शो में श्री गोधाम पथमेड़ा द्वारा स्थापित एवं संचालित विभिन्न गोसेवाश्रमों में आश्रय पाने वाले गोवंश की संख्या क्रमशः इस प्रकार रही है-सन् 1993 में 8 गाय से शुभारम्भ सन् 1999 में 90000 गोवंश सन् 2000 में 90700 गोवंश सन् 2001 में 126000 गोवंश सन् 2003 में 284000 गोवंश सन् 2004 में 54000 गोवंश सन् 2005 में 97000 गोवंश सन् 2009 में 72000 हजार इस प्रकार लगातार चलते हुए वर्तमान सन् 2010 में 200000 से अधिक गोवंश सेवा में है जो की अकाल की विभीशिका के चलते बढ़ता ही जा रहा है। साथ ही प्रदेश के विभिन्न भागों में अस्थाई गोसेवा अकाल राहत शिविरों में लाखों गोवंश को आश्रय देने का कार्य प्रारम्भ हो गया है।

पथमेडा पहुंचने के लिये अहमबाद और जोधपुर से प्रत्येक घंटे रोड्वेज और प्राइवेट बसे सांचोर के लिये चलती है ( सांचोर से पथमेडा मात्र 10 किलो मीटर की दूरी पर स्थित है और साधन उपलब्ध है) 

अधिक जानकारी के लिये सम्पर्क करें 9414152163, 9414131008 02979-287102, 287122
या मेल करे mail@pathmedagodarshan.org, या www.pathmedagodarshan.org देखे 

सूचना द्वारा 
तरूण जोशी “नारद” (स्वतंत्र लेखक एव कवि )
9462274522, 9251941999 tdjoshi_narad@yahoo.co.in, model-hunter@in.com

कारतूस पश्चिम का निशाना भारतीय गौ

वेद वाक्य है, ‘गाव उपवताक्तं महीयस्य रसुदा। उमा कर्णा हिरण्यया॥’ ऋ.वे. 8-72-12 अर्थात जहां गौएं पुष्ट होती हैं, वहां की भूमि जलमय यज्ञ भूमि होती है और वहां के लोग स्वर्ण आभूषणो से सुशोभित होते हैं। (वे भुखमरी से आत्महत्या नहीं करते।) अथर्ववेद में आगे वर्णन है ‘इन्द्रेण दत्ता प्रथमा शतौदना’ अर्थात वे गाएं जो सौ मनुष्यों का भरण पोषण करती हैं।

वर्तमान भारत में तो अब शतौदना गायों की स्मृति तक नहीं रही है। लोग भूल चुके हैं कि प्राचीनकाल में भारत की समृद्धि का मूल आधार यहां की गाएं ही थीं। मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने हमारे शिक्षित वर्ग को यह विश्वास दिला दिया है कि हमारे देश के पिछड़ेपन और उसकी दरिद्रता का मूल कारण हमारी प्राचीन परम्परा और उसमें आस्था ही है। यदि देश को उन्नत बनाना है तो पूरी तरह पाश्चात्य ज्ञान और तौर-तरीकों को यहां कार्यान्वित करना होगा, ऐसा उनका दृढ़ विश्वास है। सभी क्षेत्रों में सुधार का ज्ञान पाने के लिए हमारे तथाकथित विद्वान पाश्चात्य देशों में जाने के ‘सुअवसर’ को अपने जीवन का लक्ष्य मानने लगे हैं।

पूरे देश को पाश्चात्य रूप-रंग में ढालने की योजना से भला हमारी गौमाता कैसे वंचित रह सकती थी? हमारे नीति निर्धारकों ने दूध की मात्रा को गौमाता की उपयोगिता का मापदंड बना दिया। भारतीय संस्कृति का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता था। हमने अपनी कमियों को सुधारने की बजाय अपनी गौमाता पर ही कम दूध देने का लांछन लगा दिया। इतिहास गवाह है कि भारत वर्ष में जब तक गौ वास्तव में माता जैसा व्यवहार पाती थी – उसके रख-रखाव, आवास, आहार की उचित व्यवस्था थी, देश में कभी भी दूध का अभाव नहीं रहा।

दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए हमने अपनी गौमाता की नस्ल बदलने की ठान ली। और इसके लिए कृत्रिम गर्भाधान का रास्ता अपनाया। पश्चिम की नकल करने के पहले हम यह भूल गए कि वहां गायों को दूध के साथ-साथ मांस के लिए भी पाला जाता है। वहां कम से कम समय में कम से कम खर्चे पर अधिक से अधिक दूध और मांस उत्पादन के लिए कृत्रिम गर्भाधान को सबसे कारगर माना गया। सन 1931 में रूस में सबसे पहले बड़े स्तर पर कृत्रिम गर्भाधान की योजना बनाई गई। आज लगभग सभी पाश्चात्य देशों में कृत्रिम गर्भाधान का रिवाज है।

कृत्रिम गर्भाधान के लिए वृषभ का वीर्य कृत्रिम योनि में स्खलित करवा कर एकत्रित किया जाता है। यह प्रतिदिन दो-तीन बार करते हैं। हर स्खलन में सात आठ मिलीलीटर तरल पदार्थ मिलता है जिसमें पांच सौ करोड़ तक शुक्राणु होने की सम्भावना होती है। हालांकि स्वस्थ शुक्राणुओं की संख्या स्खलन की पुनरावृत्ति के साथ वृषभ के स्वास्थ्य, आहार, आयु आदि पर निर्भर रहती है। कृत्रिम रूप से एकत्रित वीर्य को पैनीसिलीन जैसी रोग नाशक औषधियों के साथ नमक के पानी में मिलाकर सौ-दो सौ गुना विस्तार किया जाता है और इस प्रकार एक स्खलन से लगभग दो सौ तक गर्भाधान टीके बनाए जाते हैं। इन्हीं टीकों का इस्तेमाल कृत्रिम गर्भाधान के लिए किया जाता है।

भारतीय संदर्भ में गायों का कृत्रिम गर्भाधान न केवल अनैतिक है बल्कि यह अव्यावहारिक भी है। सरकारी संस्थानों में चारा घोटाला, कार्र्यकत्ताओं की लापरवाही एक सामान्य बात है। इसलिए सरकारी संस्थानों में उत्पादित गर्भाधान टीके प्राय: शुक्राणु शून्य नमकीन पानी का घोल मात्र ही रहते हैं। आंकड़ों के खेल में हर सरकारी संस्थान निर्धारित टीकों का उत्पादन जरूर दिखाता है, भले ही वे टीके बेकार हों। इन टीकों को तरल नाइट्रोजन और रेफ्रीजरेटर में 40-50 डिग्री हिमांक से नीचे ठंडा रखा जाता है। टीका बनाने से लेकर गर्भाधान केन्द्र तक कब, कहां, कितनी बिजली, तरल नाइट्रोजन की उपलब्धता रही और इस कारण कितने शुक्राणु जीवित रह पाए, यह हमेशा एक संदिग्ध विषय रहता है। शासन तंत्र की मिलीभगत के चलते सरकारी संस्थानों में प्राय: मृतप्राय: शुक्राणुओं के टीके ही पाए जाते हैं। कृत्रिम गर्भाधान करने के लिए कुशल व संवेदनशील कर्मचारी भी चाहिए। सरकारी तंत्र में यह भी एक जटिल समस्या है। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में कृत्रिम गर्भाधान योजना की यह कठिनाइयां हैं।

एक गौ का ऋतुकाल उसकी नस्ल, स्वास्थ्य, आहार व रख-रखाव पर निर्भर रहता है। देसी गाय एक दो दिन तक गर्म रहती है। अधिक दूध देने वाली संकर गायों का ऋतुकाल कुछ घंटों तक सिमित होता है। गाय कब गर्म है, इसका निर्णय करना प्राकृतिक नियमानुसार एक वृषभ का काम है। मनुष्य गोपालक गाय के ऋतुकाल का अनुमान ही लगा पाते हैं। देसी गाय में एक दो दिन के समय के कारण इतनी कठिनाई नहीं आती, जितनी अधिक दूध देने वाली संकर नस्ल की गायों में, जो केवल कुछ घंटों तक ही गर्म रहती हैं। इतने सीमित समय में कृत्रिम गर्भाधान व्यवस्था उपलब्ध कराना सामान्यत: कठिन होता है।

पाश्चात्य देशों में औसतन पचास प्रतिशत तक कृत्रिम गर्भाधान सफल माने जाते हैं। लेकिन यह देखा जा रहा है कि जिन गायों का कृत्रिम गर्भाधान किया गया उन में हर ब्यांत के बाद कृत्रिम गर्भाधान की सफलता कम होती जाती है। इसलिए प्राय: दो-तीन ब्यांत के बाद वहां गायों को मांस के लिए मार दिया जाता है।

भारत वर्ष में गौ के ऋतुमति होने के समय की ठीक पहचान की कमी, टीमों की प्रामाणिकता का अभाव, बिजली इत्यादि की अव्यवस्था, कुशल गर्भाधानरकत्ताओं की कमी इत्यादि के चलते, राष्ट्रीय योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार मात्र 30 प्रतिशत कृत्रिम गर्भाधान सफल होते हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि भारत में कृत्रिम गर्भाधान की सफलता 20 प्रतिशत से अधिक नहीं है। कृत्रिम गर्भाधान की जितनी अधिक कोशिश की जाती है, गायों में बांझपन की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है।

बिना दूध की गौ का सूखा काल बढ़ने से किसान के लिए गौ आहार देना एक आर्थिक बोझ बन जाता है। सरकारी संस्थानों में उत्पादित गर्भाधान टीकों की प्रामाणिकता कम पाए जाने पर विदेशों से टीके आयात करने का रास्ता ढूंढा गया है। जबकि इससे विदेशों के पशुओं की आनुवांशिक भयानक बीमारियों के यहां फैलने का खतरा बढ़ जाता है। अनुचित लाभ कमाने के लालच से प्रेरित होकर यह भी देखा गया है कि कई बार अधिकारियों की मिलीभगत से विदेशों में बेकार घोषित किए जा चुके टीकों का भी आयात कर लिया जाता है। यह सब देखते हुए अब कृत्रिम गर्भाधान का दायित्व निजी क्षेत्र को दिए जाने की बात हो रही है। लेकिन ऐसा हुआ तो भी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होने वाला है।

कृत्रिम गर्भाधान न केवल अप्रभावी एवं नुकसानदेह है बल्कि यह अत्यधिक खर्चीला भी है। सरकारी नीति के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में जहां 1000 तक गायें हो, वहां एक कृत्रिम गर्भाधान केन्द्र स्थापित करने की योजना है। प्रत्येक केन्द्र पर एक प्रशिक्षित कर्मचारी को आवास, यातायात के लिए मोटर साईकल, गर्भाधान टीके के भंडारण हेतु रेफ्रिजरेटर, टीका लगाने के यंत्र और अन्य कई चीजों के लिए प्राय: एक वर्ष में दो लाख रूपए का खर्च आता है। निजी संस्थाओं या व्यक्तियों द्वारा परिचालित केन्द्रों को यह पैसा सरकार द्वारा दिए जाने की व्यवस्था की जा रही है।

एक केंद्र का कर्मचारी मोटर साईकल पर तरल नाइट्रोजन के बर्तन में गर्भाधान टीके ग्रामवासियों के घर में उनकी गायों को उपलब्ध कराता है। साल में लगभग 250 दिन काम करके वह पांच सौ गायों का कृत्रिम गर्भाधान करने का प्रयास करता है। 30 प्रतिशत गर्भाधान की सफलता संतोषजनक मानी जाती है। यानी 500 में से मात्र 150 गाएं ही गर्भवती हो पाती हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती। कृत्रिम गर्भाधान से जन्म लेने वाले लगभग 15-20 प्रतिशत बच्चे जल्दी ही मर जाते हैं। इस प्रकार दो लाख रूपए प्रति वर्ष खर्चे से सौ सवा सौ बच्चे ही मिल पाते हैं। 30 प्रतिशत सफलता के परिणाम स्वरूप हर गाय का सूखा काल दो-तीन महीने बढ़ जाता है। गरीब ग्राम वासी पर यह भी एक बोझ बनता है। फिर जो गाय हर बार, हर ब्यांत के लिए चार-पांच बार कृत्रिम गर्भाधान कराती है, उसका शरीर शिथिल हो जाता है और वह तीन-चार से अधिक बच्चे देने में असमर्थ हो जाती है। इसके बाद अधिकतर गायों को या तो कसाइयों को बेच दिया जाता है या उन्हें सड़कों पर छोड़ दिया जाता है, जहां वे असमय मर जाती हैं।

कृत्रिम गर्भाधान की इस अव्यावहारिक एवं अनैतिक व्यवस्था को छोड़ यदि सरकार प्राकृतिक गर्भाधान की व्यवस्था करे तो स्थिति में व्यापक सुधार हो सकता है। एक वृषभ से वर्ष में पचास से सत्तर बच्चे उत्पन्न हो सकते हैं। एक वृषभ के रखरखाव की अच्छी व्यवस्था करने में तीस-चालीस हजार रुपए का खर्चा आता है। दो लाख रूपए के खर्च पर पांच-छ: वृषभ 350 से 400 तक स्वस्थ बच्चे प्रदान कर सकते हैं। गाएं असमय बांझ नहीं होंगी। ठीक रख रखाव होने पर हर गाय आठ-दस बच्चे आसानी से देगी।

देश में स्वतन्त्रता से पूर्व हर 1000 भारतीयों पर 700 गायें थीं जो आज घटकर 100 रह गई हैं। अगर हम ऐसे ही चलते रहे तो हमें चाय पीने तक के लिए विदेशों से दूध आयात करना पड़ेगा, जैसा बांग्लादेश कर रहा है और पाकिस्तान भी उसी राह पर है। यह सब पाश्चात्य डेयरी उद्योग की सुनियोजित योजना के चलते हो रहा है। इसके लिए हमारे शासक वर्ग की अदूरदर्शिता और हमारे धर्माचार्यों की उदासीनता को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

आज आवश्यकता है कि देश की प्रत्येक गौशाला देश के कोने-कोने में भारतीय नस्ल के स्वस्थ वृषभ किसानों एवं सरकारी एजेंसियों को उपलब्ध कराए। हर ग्रामीण क्षेत्र में, हर मंदिर-देवालय में एक अच्छे वृषभ को रखने का अपना दायित्व निभाना हमारे धर्माचार्यों और गौशाला चलाने वालों का ध्येय बनाना चाहिए। तरफणों के लिए उन्नत पशुपालन एवं जैविक कृषि की शिक्षा का प्रबंध अनिवार्य रूप से होना चाहिए। अगर ऐसा किया गया तो किसानों को आत्महत्या नहीं करनी पड़ेगी। गौ ग्राम नहीं बचा तो ‘शाइनिंग इंडिया’ भी नहीं बचेगी और एक बार फिर हमें गुलामी का दंश भोगने के लिए मजबूर होना होगा।

-सुबोध कुमार

(लेखक मूलत: इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं और महर्षि दयानंद गोसंवर्धन केन्द्र, पटपड़गंज, दिल्ली के प्रबंधन में सक्रिय रूप से जुड़े हैं)



विश्व में सर्वश्रेष्ठ है भारतीय गोवंश

प्रागैतिहासिक भूविज्ञान के विद्वान हमें अवगत करा चुके हैं कि हमारी पृथ्वी में जीवनस्वरूपों के उद्भव व विकास क्रम के अंतर्गत गोवंश के आदिकालीन पूर्वज ‘औरक्स’ की जन्मस्थली (18 लाख वर्ष पूर्व) भारत है, जहां उसके प्रथम प्रतिनिधि ‘बास प्लैनिफ्रन्स’ ने 15 लाख वर्ष पूर्व अपना पहला कदम रखा था।

भारत में प्रारंभ हुई अपनी विकास यात्रा के दौरान अफ्रीका व यूरोप में फैल कर स्थापित होने में इसे 2-3 लाख वर्षों का समय लगा। इस लम्बी यात्रा के दौरान, अपने सुरक्षित विकास के लिए, इस जीव को भी प्रकृति द्वारा स्थापित विधान, ”एक विशिष्ट पर्यावरण परिवेश में योग्यतम की उत्तरजीविता और उनका समूल नाश, जो अपने चारों और फैले साधनों का सदुपयोग नहीं कर पाते हैं”, का अनुसरण करना पड़ा था। इस प्राकृतिक नियम के अंतर्गत यह पशु, इस यात्रा-पथ के स्थानीय पर्यावरण (विशिष्ट जलवायु और उपलब्ध खान-पान में भिन्नता) के अनुरूप अपने को ढालते रहने के क्रम में, अफ्रीका व यूरोप पहुंचने तक सर्वथा नवीन भौतिक स्वरूप धारण कर चुका था। अब केवल, उसकी आकृति भारतीय गोधन से मिलती जुलती रह गई थी। हालांकि स्तनपायी जीव होने के कारण यह दूध उत्पादन में सक्षम था।

आकृति की बात करें, तो हम पाते हैं कि भारत में नील गाय नामक पशु पाया जाता है, जो देखने में हमारी गाय के समान है। परंतु वैज्ञानिक विवेचना से ज्ञात होता है कि इसका गोवंश से कोई संबंध नहीं है और उसके पूर्वज हिरण कुल के हैं। यह है प्रकृति की माया, जिसके प्रभाव में विभिन्न-जीव बदलते पर्यावरण के समकक्ष स्वरूप धारण करने के प्रयास में, जटिल रूप धारण करते रहे हैं। आधुनिक मानव के विकास का इतिहास भी ऐसा ही है।

परंतु अफ्रीका व यूरोप में स्थापित होने के काल तक विश्व के अन्य महाद्वीपों (उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका, आस्ट्रेलिया) में गोधन का अस्तित्व ही नहीं था। 19वीं सदी में यूरोपवासी अपने अतिक्रमण अभियानों के दौरान अपना गोधन लेकर वहां पहुंचे थे। तभी से गोधन वहां उपलब्ध हो सका।

कालांतर में जलवायु, पर्यावरण एवं पशुपालन विधियों में भिन्नता होने के कारण विभिन्न गौ-प्रजातियों के गुणों में भारी अंतर स्थापित हो चुका है, विशेषकर भारतीय व विदेशी गोधन के मध्य। दूध देने के साथ-साथ भारतीय गौ-प्रजातियों में ऐसे असंख्य गुण हैं जिनकी विदेशी प्रजातियों में कल्पना भी नहीं की जा सकती। वास्तविकता यह है कि आधुनिक जर्सी/आस्ट्रियन/फ्रिजियन/होलस्टीन आदि विदेशी-काऊ प्रजातियां, मानव द्वारा विकसित जिनेटिकली इंजीनियर्ड परिवार की सदस्य हैं, जिन्हे अधिक दूध व मांस उत्पादन के लिए विकसित किया गया है। विश्व के शीतोष्ण प्रदेशों में इनका विकास हुआ है। इसलिए ये गर्मी सहन नहीं कर सकती हैं। उन्हें ठंडा वातावरण ही भाता है। उनका खान-पान व रख-रखाव का तरीका भी भिन्न है। इनमें रोग-निरोधक शक्ति का भी अभाव है। इनका रूप व आदतें सिद्ध करती हैं कि हल व बैलगाड़ी चलाने में इनकी उपयोगिता नहीं है और इनके पंचगव्य में भारतीय गोधन के समान उच्चस्तरीय जैव-प्रजनन व उपचार गुण भी नहीं है।

इसके विपरीत भारतीय गोधन अपनी जन्मस्थली के जैव-समृद्ध प्रदेशों में लाखों वर्षों से जीवन-यापन करते हुए विकासरत रहा है। गर्मी के मौसम में कितनी भी कड़कती धूप क्यों न हो, वह मुंह नीचा कर छोटे पेड़ों-झाड़ियों की छांव में भी शान्त खड़ा व बैठा रहता है। कारण-उसमें भारतीय जलवायु अनुरूप व्यवहार प्राकृतिक रूप से उसमें समाहित हो चुके हैं। भारतीय गोधन, एक जैव-समृद्ध देश में विकासरत रहने के दौरान, आरंभ से ही जंगलों व चट्टानी इलाकों में नाना प्रकार की जड़ी-बूटियां व काष्ठीय वनस्पतियां खाता आया है। फलस्वरूप उसके भौतिक स्वरूप व पंचगव्य में उच्चस्तरीय गुण प्राकृतिक रूप में स्थापित हैं।

आधुनिक विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुंचने लगा है कि स्थानीय जलवायु, मृदा रसायन व आहार इस प्रकार के अंतर स्थापित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए डीएनए परीक्षणों द्वारा कार्बन और नाइट्रोजन अनुपात निर्धारण कर वैज्ञानिक बताने लगे हैं कि सफेद गैंडा घास-पात और काला भारतीय गैंडा जड़ी-बूटी व काष्ठीय वनस्पति खाता आया है।

हमारे विद्वान पूर्वजों ने इस पृथ्वी में व्याप्त पारिस्थितिकीय-विधान का वैज्ञानिक अंतररहस्य ज्ञात कर सामाजिक व्यवस्था को निरंतर गतिशील बनाए रखने के लिए कई सरल-व्यवहार योग्य परंपराएं स्थापित की थीं। उद्देश्य था कि आगे आने वाली मानव पीढ़ियां भी उनके वैज्ञानिक ज्ञान का लाभ उठाते हुए स्वविकास की ओर कदम बढ़ाती रहें। इस प्रकार की वैज्ञानिक सोच के अंतर्गत, उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी होगी कि इस पृथ्वी में सकुशल जीवन यापन के लिए स्वच्छ हवा व पानी के साथ-साथ भोजन ग्रहण कर ऊर्जा प्राप्त करते रहना सभी जीवनस्वरूपों की नियति है। इसलिए उन्होंने, इन भौतिक अनिवार्यताओं को प्राकृतिक रूप में यथावत बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की थी। उनके द्वारा प्रतिपादित सभी आचरण, नियम-परंपराओं में यह वैज्ञानिक झलक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है।

इस प्रकार के शोध कर्म के अंतर्गत जब उन्हें भारतीय गोवंश में प्राकृतिक रूप से समाए चमत्कारिक जैव-प्रजनन/उपचारिक गुणों का ज्ञान हुआ, तब उन्होंने इस जीव को ‘गोधन’ की संज्ञा प्रदान करते हुए उसे ‘गोमाता’ का प्रतिष्ठित आसन प्रदान कर, उसे ‘अघन्या’ (न मारने योग्य जीव) मानने की परंपरा स्थापित कर उसके स्थायी संरक्षण की सामाजिक व्यवस्था विकसित की।

इसके ऐतिहासिक दस्तावेज मिलते हैं कि भारत में मुगल शासन के दौरान गोहत्या निषेध एक सशक्त कानून के रूप में लागू था। इसका कारण है कि मुसलमान लोग मांसाहारी थे व उन्हें गोमांस खाने में भी कोई दुविधा नहीं थी। भारत में आकर बसने पर मुसलमानों को भारतीय कृषि समृद्धता में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित गोधन आधारित प्रौद्योगिकी (जैव कृषि व औषध) का ज्ञान होने लगा और वे अपने आर्थिक विकास के लिए उसे गम्भीरता से अपनाने भी लगे। सभी मुगल शासक जान चुके थे कि भारतीय जलवायु के अंतर्गत गोवंश, आर्थिक समृद्धता प्रदान करने वाला सबसे सशक्त, स्वदेशी जैव-ऊर्जा स्रोत है, चाहे वह नागरिकों के स्वास्थ्य संरक्षण का प्रश्न हो, या भोजन के लिए अनिवार्य अन्न/फल/सब्जी उत्पादन वृध्दि की बात हो, अथवा नागरिकों की आर्थिक समृध्दता गतिमान रहने पर सरकार को नियमित राजस्व मिलते रहने का प्रश्न ही क्यों न हो।

इस प्रकार के ऐतिहासिक परिदृश्य में यह मानना न्याय-संगत प्रतीत होता है कि औरंगजेब के शासनकाल तक (मृत्यु 1707) भारत में गोमांस खाना बहुत सीमित था। इसके पश्चात भारत में मुगल बादशाहों की पकड़ कमजोर होती चली गई और इसका लाभ उठाते हुए यूरोप से व्यापार करने आए अंग्रेजों ने धीरे-धीरे कर हमारे देश में अपना शासन स्थापित कर लिया। भारत में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए अंग्रेजों ने बड़ी चतुराई से हिन्दुओं व मुसलमानों के मध्य स्थायी वैमनस्य निर्माण के लिए ‘भारतीय-गोधन’ को ब्रह्मास्त्र के रूप में उपयोग किया। उनके दुष्प्रचार के कारण गाय को मात्र हिन्दुओं का प्रतीक माना जाने लगा और वह राजनीति का मोहरा बन गई।

इतना ही नहीं, वर्ष 1835 में लार्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा को आगे बढ़ाया। इसके प्रभाव में हम भारतवासी अपनी संस्कृत-भाषा से विमुख होते चले गए, जो हमारे महान प्राचीन ग्रंथों की भाषा है। इस शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत हम भारतीवासी यह जानते ही नहीं कि हमारे स्वर्णिम प्राचीन इतिहास के पीछे हमारे पूर्वजों द्वारा उच्चस्तरीय वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुरूप विकसित जैव-प्रौद्योगिकी का हाथ रहा है। ये सभी अनुभवजन्य व भारतीय जलवायु में कारगर व प्रमाणित विधियां हैं। जागृत विज्ञान आधारित होने के कारण हम इन्हें वर्तमान में भी अपनाकर विश्व में उभरते जैव-प्रौद्योगिकी युग में असाधारण आर्थिक लाभ कमा सकते हैं।

इसलिए हम भारतवासियों को यह समझना आवश्यक है कि हमारे देश में गोहत्या निषेध की परंपरा प्रकृति के आशीर्वाद से भारत में उपलब्ध, एक पर्यावरण संगत व आधारभूत जैव ऊर्जा स्रोत को सरंक्षण प्रदान करने के सामाजिक आचरण से उभरी आर्थिक व्यवस्था का आदर्श स्वरूप है। इसी विशिष्ट जीव के भौतिक स्वरूप और पंचगव्य (गोबर, गोमूत्र, दूध, दही, घी) में समाए जैव-समृद्ध गुणों की वैज्ञानिक व्याख्या व उस पर आधारित प्रौद्योगिकी विकास कर हमारे पूर्वजों ने भारत को ‘सोने की चिड़िया’ जैसी प्रतिष्ठा दिलवाई थी।

परंतु भारत में शासन करने के लिए अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई कूटनीति से प्रभावित होकर भारतीय आचार-व्यवहार शनै: शनै: परिवर्तित होता चला गया। एक ओर भारतीय मुसलमानों ने निर्भय हो कर गोमांस सेवन करना आरंभ कर दिया, तो दूसरी ओर हम भारतवासियों ने गोवंश के रख-रखाव की ओर समुचित ध्यान देना छोड़ दिया। वर्तमान स्थिति यह है कि विदेशी काऊ के मुकाबले हमारी भारतीय गाय की दूध उत्पादन क्षमता बहुत कम हो गई है; इतनी कम कि आज भारत में स्वदेशी गोधन के पालन-पोषण को घाटे का सौदा समझा जाता है। इस सोच के प्रभाव में भारतीय योजनाविदों ने भारतीय नस्ल के गोधन को एक समस्या के रूप में ही पहचाना है व उसके सदुपयोग के विषय में सोचा ही नहीं, योजना बनाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

यद्यपि अधिकतर भारतीय गायों का दूध उत्पादन तुलनात्मक रूप से कम है, लेकिन उनके गोबर-गोमूत्र में आज भी उच्चस्तरीय जैव-प्रजनन/उपचारिक गुण प्राकृतिक रूप में समाए हुए हैं। अमेरिका जैसा समृद्ध देश भी अब भारतीय गोवंश के पंचगव्य में विद्यमान उत्कृष्ट जैविक-गुणों का महत्व समझते हुए, भारत से जैव-वर्मीकम्पोस्ट/ पेस्टिसाइड निर्यात के विषय में गंभीरता से सोचने लगा है।

पिछले दो दशकों से कई भारतीय स्वयंसेवी संस्थाओं ने जैव-कृषि क्षेत्र में प्राचीन भारतीय पद्धतियों को व्यावहारिक रूप में अपनाकर, सफल आर्थिक प्रदर्शन आरंभ कर दिया है। इन प्रयासों से एक व्यावहारिक मान्यता उभरी है कि भारतीय जलवायु के अंतर्गत एक स्वदेशी गोधन का गोबर-गोमूत्र एक हेक्टेयर भूमि में कृषि के लिए पर्याप्त है। दूसरी ओर यह मान्यता पुन: स्थापित हुई है कि एक बंजर-भूमि को गोपालन द्वारा 2/3 वर्षों में उपजाऊ बनाया जा सकता है। इस प्रकार विवेचना से ज्ञात होता है कि भारत में कुल कृषि योग्य भूमि 14.2 करोड़ हेक्टेयर है और गोधन की संख्या 19.8 करोड़ है अर्थात भारतीय कृषि भूमि की जैव-खाद/कीटनाशक आवश्यकता से कहीं अधिक गोधन हमारे पास है। इस क्षमता का सदुपयोग कर, भारत न केवल अपने यहां कृषि को एक नई ऊंचाई दे सकता है बल्कि निर्यात द्वारा विश्व में उभरते जैव-प्रौद्योगिकी व्यापार में प्रमुख भूमिका भी निभा सकता है।

इसके अलावा, अब तो भारत में पंचगव्य के उपयोग से फिनायल, अन्न सुरक्षा टिकिया, मच्छर निरोधक क्वायल, बर्तन मांजने का पाउडर, डिस्टेम्पर, फेस पैक (उबटन), साबुन, सैम्पू, तेल, धूप बत्ती, दंत मंजन आदि कई चीजों का निर्माण व्यावसायिक स्तर पर किया जा रहा है। जैव उत्पाद होने के कारण, इनकी मांग विदेशों में भी बढ़ने लगी है। इतना ही नहीं, स्वदेशी गोधन में विद्यमान भार-वहन क्षमता का उपयोग कर बैल-चालित ट्रैक्टर/सिंचाई व पंपिंग मशीन/बैट्री चार्जर जैसे उपयोगी यंत्रों का विकास भी भारत में हो चुका है और इन्हें व्यावहारिक रूप में सफलतापूर्वक उपयोग भी किया जा रहा है।

परंतु दुर्भाग्यवश हम आज भी अंग्रेजी सोच से ग्रसित हैं। इस मानसिकता के कारण, हमारे गोवंश में विद्यमान जनोपयोगी गुणों का प्रचार-प्रसार भारत में नहीं हो पाया है। इसलिए इस विषय के जानकार भारतीयों को राष्ट्र-धर्म के रूप में गोमाता के सदगुणों का प्रचार-प्रसार करना होगा, वह भी अपनी-अपनी मातृभाषा में, जैसाकि हमारे पूर्वजों ने किया था। इस विषय को प्रचार-प्रसार मिलने पर, भारत में सर्वत्र कुटीर उद्योग का जाल फैल जाएगा, क्योंकि भारत में 70 प्रतिशत गोधन के मालिक गरीब किसान हैं। भारतीय किसानों के मध्य इस प्रकार का ज्ञान, एक ऐसी हरित-क्रांति को जन्म देगा, जो सार्थक एवं टिकाऊ होगी।

-शिवेन्द्र कुमार पाण्डे
(लेखक एक भूवैज्ञानिक एवं कोल इंडिया लि. के सेवानिवृत्त मुख्य महाप्रबंधक (गवेषणा) हैं।)


गोवंश संवर्धन से बचेगी देश की संस्कृति

गाय को लेकर हमारे समाज में एक बड़ा विरोधाभास है। एक ओर हम गाय को माता का स्थान देते हैं। हमारी श्रद्धा हमारे प्रत्येक कर्म के साथ दिखाई पड़ती है। खाना प्रारम्भ करने से पहले गो-ग्रास निकाल कर अलग रख दिया जाता है।प्राचीन भारतीय परम्परा और गोमाता- 

गाय में 33 करोड़ देवताओं के वास की बात कही गयी है। गाय के दूध, दही, घी आदि से शरीर पुष्ट होता है। मूत्र में औषधीय गुण है। गोबर कृषि के लिए खाद देता है और इसी गोवंश के बैल से खेती होती है। इस प्रकार स्वावलम्बी जीवन यापन की पूरी श्रंखला गाय के साथ जुड़ी हुई है। भगवान कृष्ण के साथ गोपाल, गोविन्द नाम उनकी गायभक्ति के कारण जुड़ा हुआ है। भगवान राम के पूर्वज राजा दिलीप ने तो स्वयं वन में जाकर गाय की सेवा की है। वास्तव में गाय के गुणों के कारण ही उसे हमारी परम्परा में माता का स्थान दिया गया है। आज भी उस श्रद्धा के कारण हिन्दू समाज इसे पूज्यनीय मानता है।

लेकिन एक दूसरा चित्र भी है। आज भी हिन्दू समाज में वह परम्परागत श्रद्धा बनी हुई है। परन्तु योजनाबद्ध षड़यंत्र के कारण हमारी दिनचर्या, जीवनशैली में धीरे-धीरे ऐसा बदलाव कर दिया गया है कि हम धीरे धीरे उस माता से दूर हो गए है और आज भी दूर जा रहे है।

आधुनिक जीवनशैली और गोसेवा-
आज नगरों की ऐसी आवास-व्यवस्था बन गई है कि कोई चाह कर भी गाय नहीं रख सकता। बहुमंजिली इमारतों में व्यक्ति की सुख-सुविधाओं की हर छोटी-छोटी बात का ध्यान रखा जाता है। कारों के लिए अलग से गैरज का प्रबन्ध है परन्तु गाय पालना संभव नहीं है। महानगरों में तो यह बिल्कुल भी संभव नहीं है। कितनी ही आप के मन में श्रद्धा हो कि आप अपने हाथों से गाय की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करें। यह आज के परिवेश में संभव नहीं है। 

जब आप गाय पालन कर ही नहीं सकते तो उसके गुणों की अनुभूति आपको कैसे होगी। कैसे आप जानेंगे कि उसके दूध में कैसी दैवीय शक्ति है। उसके दूध से कैसा स्वास्थ्य लाभ होता है, कितनी बुद्धि प्रखर होती है यह आप कैसे अनुभव कर पायेंगे। इस प्रकार धीरे-धीरे हमारे आवास का कल्चर बदल जाने के कारण हम गाय से दूर होते गए।

सामाजिक भ्रांतियां और गाय-
हमारी श्रद्धा को समाप्त करने के लिए शास्त्रों की व्याख्या में ऐसी शिक्षा दी गई कि वैदिक काल में भी हमारे पूर्वज गाय माँस खाते थें। सब से बड़ा अन्याय यही से प्रारम्भ हुआ। कुछ सूत्रों की व्याख्या को ऐसा तोड़ा मरोड़ा गया तथा उन्हें इतना महत्व दिया गया कि अन्य हजारों जगह जो गाय की स्तुति की गई उसकी उपेक्षा कर दी गई। गाय के प्रति श्रद्धा को कम करने का यह एक नियोजित शड़यंत्र था।

दूसरा भ्रम पैदा किया गया कि गाय और भैस के दूध की तूलना का। दूध की गुणवत्ता का पैमाना चिकनाई को प्रचारित किया गया। गाय का दूध पतला होता है और भैंस के दूध से घी, मावा, पनीर, अधिक मिलता है। इसलिए गाय के दूध की कीमत कम आंकी गई और भैंस का दूध मंहगा बिकने लगा। जबकि आज तो चिकनाई को मेडिकल की दृष्टि से शरीर के लिए हानिकारक माना जाने लगा है और दूध के स्थान पर टोन्ड मिल्क अर्थात चिकनाई रहित दूध का प्रचलन सरकारी, गैर-सरकारी डेरियों में होने लगा है।

यह लोग भूल गये कि गाय का दूध पीने से बुद्धि प्रखर होती हैं। शरीर में आलस्य और प्रमाद के स्थान पर चेतनता आती हैं। इसका स्पष्ट उदाहण गाय के बछडे और भैंस के पड़वे की चेतनता को देखकर लगाया जा सकता है। गाय के बछड़े को उछलते, कुलांचे भरते देखा जा सकता है जबकि भैंस का बच्चा एकदम मरियल सा सोया पड़ा रहता है। आज कई गोभक्त वैज्ञानिकों ने इस दृष्टि से अनुसंधान करके सिद्ध कर दिया है कि गाय का दूध ही मनुष्य के शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए अधिक उपयुक्त है।

गाय के दूध को भैंस के दूध की तूलना से कम मूल्य व कम शक्तिशाली बताने का भ्रम पैदा करके गाय को समाज से दूर करने का षड़यत्र रचा गया है। शहर में हर व्यक्ति अपनी गाय तो रख नहीं सकता। वह डेयरी में दूध लेने जाता है डेयरी वालों को भैंस पालने में लाभ होता है क्योंकि भैंस अधिक दूध देती है और भैंस का दूध चिकनाई के पैमाने के हिसाब से मंहगा बिकता है। इसलिए डेयरी वाला भैस ही पालता है। उसके पास दस भैंस है तो एक दो गाय है। क्योंकि गाय के दूध को केवल बीमार या छोटे बच्चों के लिए ही उपयुक्त माना जाता है और सामान्य उपयोग में भैंस के दूध को ही दूध बताया गया है। इस प्रकार भैस की स्पर्धा मे गाय के दूध को एक षडयन्त्र के नाते केवल चिकनाई को पैमाना बनाकर हीन बना दिया गया है।

उत्तर भारत में तो भैंस से स्पर्धा हुई परन्तु दक्षिण में और शेष भारत में गाय ही अधिक थी। गाय भैंस से दूध मे भले ही पिछड़ गई परन्तु गाय के बछड़े बैल बनकर अच्छे दाम पर बिक जाते हैं इसलिए गांव में गोपालन उत्तर भारत में कम दूध होने पर भी चालू रहा। बछड़ा ब्याहने पर गाय का मूल्य केवल बछड़े के कारण दुगना तक हो जाता था।

गोपालन और गांव का विकास-
गांव में गोपालन पर मार पड़ी ट्रैक्टर के आने से। ट्रैक्टर आ गए तो बैल अनुपयोगी दिखने लगे। बैल पालने और दिन रात उनके चारे के लिए प्रबन्ध करते रहो, इस झंझट से मुक्ति पाने के लिए बड़े किसानों ने अपने ट्रैक्टर खरीद लिए और छोटे किसान ट्रैक्टर वाले से किराये पर खेत जुतवाने लगे। इस ट्रैक्टर के आगमन ने गांव के पूरे कार्यचक्र को तोड़ दिया। गाय थी बैल थे तो गाँव में रोजगार था। बढ़ई लोहार, चर्मकार, चरवाहा सभी किसान के हल के साथ जुड़े हुए थे।

बढ़ई हल बनाता था, बैलगाड़ी बनाता था। लोहार हल के आगे का फल बनाता था, चर्मकार मरे हुए जानवरों के चमड़े से जूते बनाता था। चरवाहा जानवरों को पास के जंगल मे चराने के लिए ले जाता था। परन्तु अब तो किसान खुद ही बेकार हो गया है। खेती में अब तो केवल फसल बोते समय ही अधिक काम होता है और शेष समय तो घर-परिवार के लोग ही खाली हो गये। इस प्रकार गोवंश का गांव से निष्कासन होने के साथ-साथ जनता का भी गांव से शहर की ओर रोजगार के लिए पलायन शुरू हो गया है।

ट्रैक्टर की खेती से एक ओर तो बेरोजगारी फैली दूसरे पशुओं के न रहने से खाद की कमी महसूस की जाने लगी है। खाद के लिए सरकार ने यूरिया आदि रासायनिक खादों के उपयोग की सिफारिश की। शुरू मे रासायनिक खादों से जमीन की फसल मे आशातीत वृद्धि हुई। तत्कालिक लाभ ने पुराने सिस्टम को तोड़ने में सहायता दी।

गोपालन में कमी के दुष्परिणाम-
कुछ ही वर्षों बाद इसके दुष्परिणाम भी प्रारम्भ हुए। ट्रैक्टर की जुताई से ट्रैक्टर के पहिये के बोझ से जमीन में पलने वाले केचुआ आदि शनै: शनै: मरने लगे। उधर यूरिया आदि गरम खादों के कारण भी लाभकारी जीवाणु मरने लगे और रासायनिक खादों के कारण भी हानिकारक जीवाणु खेती की फसल को नुकसान पहुंचाने लगे। इससे फसल के पकने से पूर्व ही कीड़ा लग जाता है। इसे रोकने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। फसल जैसे ही पकने के लिए तैयार हो, उस पर कीटनाशक का छिड़काव किया जाने लगा।

पहले खेत में गोबर की खाद पड़ती थी उसमें एक ओर तो धरती की उर्वराशक्ति कायम रहती थी। दूसरे उसमें प्राकृतिक रूप् से कीटों से बचाव की अदृभुत क्षमता थी। अब कीटनाशकों के प्रयोग से फसल को कीटों से तो बचाया गया परन्तु फसल के उत्पाद पर जो कीटनाशक रसायनों का प्रभाव हुआ वह अधिक नुकसानदायक साबित होने लगा।

आज उन उत्पादों- टमाटर, बैगन आदि को खाने वालों को उन रसायनों के दुष्प्रभाव से बचाना कठिन हो रहा है। आज से तीस चालिस वर्ष पूर्व किसी गांव में आपको शायद ही कोई रक्तचाप, हृदय रोग या कैंसर का रोगी मिल जाए। आज शहरों के साथ गांव में भी इस प्रकार की जानलेवा बीमारियों के रोगी मिल सकते हैं। विचारकों का कहना है यह खेती पर छिड़काव किए जाने वाले कीटनाशकों के जहर का प्रभाव है। मानव के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों तथा धरती की उर्वराशक्ति के निरन्तर कम होने के कारण अब समाज में आर्गेनिक खेती की मांग उठने लगी है। आर्गेनिक खेती अर्थात गोबर आदि प्राकृतिक खाद से होने वाली खेती, जिसमें रासायनिक खादें तथा कीटनाशकों का प्रयोग न किया गया हो।

इस प्रकार गाय के बिना खेती से किस प्रकार तबाही हो रही है, यह परिणाम ही बता रहे हैं। लाखों करोड़ की सबसिडी पहले सरकार रासायनिक खाद कम्पनियों को देती है उसके बाद भी किसान को खेती इतनी मंहगी हो गई है कि वह उससे भरपेट भोजन नहीं प्राप्त कर पाता। वह निरन्तर कर्ज के बोझ तले दबता जा रहा है। सरकार समय समय पर कर्ज माफ भी करती है परन्तु फिर भी उसे अपनी आर्थिक मजबूरियों के कारण आत्महत्या करनी पड़ती है। अब तो किसानों की आत्महत्या इतनी आम हो गयी है कि वह खबर भी नहीं बनती।

इस तरह एक गाय के कृषि चक्र से बाहर हो जाने पर न केवल धरती बंजर हो रही है। मानव के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया है, मानव के स्वास्थ्य और सुख शान्ति पर गंभीर संकट आ गया है। इसलिए आज पुन: गाय की महत्ता की बात लोगों को समझ में आने लगी है। गोग्राम यात्रा का इसीलिए गावों में अधिक स्वागत हो रहा है।

गाय की उपयोगिता आर्थिक दृष्टि से कम करने में जर्सी गाय ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जर्सी गाय अधिक दूध देती है, देसी गाय कम दूध देती है, इस तुलना में देसी गाय की अपेक्षा जर्सी गाय के दूध को व्यवसाय की दृष्टि से लाभप्रद बताया गया। इस कारण भी भारत की गाय को पालने में ग्वाले पीछे हट गये यद्यपि जर्सी गाय का बैल खेती के लिए उपयोगी नहीं होता। लेकिन डेरी फार्म का व्यवसाय करने वालों को देसी गाय की अपेक्षा जर्सी गाय अधिक प्रिय रहीं।

लेकिन आज वैज्ञानिक शोधों ने सिद्ध किया है कि स्वास्थ्य और औषधीय दृष्टि से जो तत्व देसी गाय के दूध में हैं उससे बहुत कम मात्रा में जर्सी गाय में है, इसलिए अब तो जर्सी गाय को भारत की गाय कहने में ही संकोच होता है। गो-मूत्र की दृष्टि से भी जर्सी उपयोगी नहीं ठहरती। गो-मूत्र में जो कैंसर तक को ठीक करने के औषधीय गुण है, वह जर्सी गाय के मूत्र में नहीं है।

गो ग्राम यात्रा और गाय की उपयोगिता-
जैसे ठोकर लगने पर ही व्यक्ति सीखता है। वैसे ही गाय की उपेक्षा से जो पूरे समाज का स्वस्थ्य-चक्र बिगड़ा उसने भी पुन: गाय की ओर लौटने के लिए समाज को प्रेरित किया है। ऐसे समय पर गो-ग्राम यात्रा ने समाज में व्याप्त कुण्ठा को समाप्त कर उसे पुन: गाय की ओर लौटने के लिए एक एक मंच प्रस्तुत किया है। यह यात्रा वास्तव में समाज में व्याप्त असमंजस की स्थिति से निकलने का एक मार्ग सुझाती है। जैसे स्वामी रामदेवजी का योग चार पांच वर्षों में प्रचारित हो गया उसका एक कारण यह भी है कि लोग ऐलोपैथी की दवाएं खाकर हताश और निराश हो चुके थे उन्हें रामदेवजी के योग में एक आशा की किरण दिखाई दी और लोग उनके पीछे एकजुट होने लगे। 

अब इसमें दो मत नहीं है कि गाय की उपयोगिता को जानकर लोग गोपालन में रुचि लेंगे। जितना अधिक प्रचार गाय की उपयोगिता को तर्क के साथ समझाने की कोशिश की जाएगी। उतना ही लोग गाय के प्रति उन्मुख होंगे। नगरों में गाय का दूध उपलब्ध हो इसकी व्यवस्था सरकारी या गैर-सरकारी स्तर पर की जानी चाहिए। यदि व्यवस्था हो और लोगों को गाय के दूध की उपयोगिता का सही ज्ञान कराया जाए तो लोग भैंस के दूध से अधिक दाम देकर गाय का दूध लेना चाहेंगे।

आज मुख्य प्रश्न दूध की उपलब्धता का है। गाय लोग घर पाल सकें इसके लिए गाय की मण्डी उपलब्ध हो जहां से गाय खरीदी जा सके। आज उत्साह में कोई गाय पालना भी चाहे तो उसे गाय मिलती नहीं। इन कामों की व्यवस्था की गई तो लोगों की गाय में रुचि उत्पन्न होने लगेगी। अन्यथा गो ग्राम यात्रा केवल आन्दोलन का रूप लेकर समाप्त हो जाएगी।

गाय और भैस के दूध की तूलना की प्रयोगशाला की रिपोर्टों को सार्वजनिक किया जाना चाहिये। देसी गाय और जर्सी गाय की गुणवत्ता के भी अन्तर को शोधों के आधार पर प्रचारित किया जाना चाहिए। गाँव की दृष्टि से आर्गेनिक खेती के लिए वातावरण बना है परन्तु जो किसान गोबर की खाद से खेती करे उसके कारण आरम्भ में भी कम उपज होगी उसकी भरपाई के लिए उसकी उपज के विक्रय की भी व्यवस्था होनी चाहिये।

यदि इस प्रकार के व्यावहारिक बिन्दुओं को सोचकर कदम उठाए जाएंगे तो गाय का दूध अपनी स्वयं की शक्ति से स्वत: ही समाज में अपना स्थान बना लेगा। गाय यदि उपयोगी हो जाएगी तो वह किसी भी कारण से कत्लखाने तक नहीं पहुँचेगी। गोमूत्र के ऊपर जो अनुसंधान हुए हैं उससे लोगों में गोमूत्र के बारे में उत्सुकता जागृत हो गयी है। अब गोमूत्र बिकने लगा है। यदि उसकी पूरी व्यवस्था हो जाय तो गोसदन एव गोशालाएं आत्मनिर्भंर हो जाएगी, उन्हें दान की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। गाय की उपयोगिता को तर्कों के आधार पर लोगों में प्रचारित किया जाए और उन्हें दूध प्राप्त करने के लिए व्यवहारिक सुविधा प्रदान की जाए। गाय स्वयं ही बच जाएगी। गौ के तेज में बहुत शक्ति है। वह समय आ गया है जब गाय अपना वर्चस्व प्रसारित करेगी और पुन: सच्चे अर्थों में माँ का स्थान प्राप्त कर लेगी।

प्रस्तुति- वीएचवी ब्यूरो/4 जनवरी 2010

Monday, May 31, 2010

गोरक्षार्थ धर्मयुद्ध सुत्रपात


धर्मप्राण भारत के हरदे सम्राट ब्रह्रालीन अन्न्त श्री स्वामी श्री करपात्री जी  महाराज द्वारा संवंत २00१ में संस्थापित अक्षिल भारतवासीय धर्मसंघ ने अपने जन्मकाल से ही मॉ भारतीय के प्रतीक गो रक्षा पालन पूजा एंव संर्वधन को अपने प्रमुखा उद्देश्यो में स्थान दिया था। सन २१४६ में देश में कांग्रेस की अंतरिम  सरकार बनी । भारतीय जनता ने अपनी सरकार से गोहत्या के कलंक  को देश के मस्तक से मिटाने की मांग की। किंतु  सत्ताधारी  नेताओं ने पूर्व घोषणाओ की उपेक्षा कर धर्मप्राण भारत की इस मांग  को ठुकरा दिया।

सरकार की इस उपेक्षावर्ती  से देश के गोभक्त नेता एवं जागरूक जनता चिन्तित हो उठी। उन्हे इससे गहरा  आघात लगा। सन` १९४६ के दिसम्बर मास में देश के प्रमुख नगर बंबई श्रीलक्ष्मीचण्डी-महायज॔ के साथ ही अखिल भारतीय धर्मसंघ   के तत्वाधान में आयोजित विराट गोरक्षा सम्मेलन मे स्वामी करपात्री जी  ने देश के धार्मिक सामाजिक एंव राजनैतिक नेताओं एंव धर्मप्राण जनता का आह्रान किया। देश के सवोच्च धर्मपीठो के जगदगुरू शंकराचार्य संत महात्मा विद्वान राजा-महाराजा एंव सद`गहस्थो ने देश के समक्ष उपस्थित इस समस्या पर गम्भीर विचार मंथन किया। और सम्मेलन  में सर्वसम्मत  घोषणा की गयी कि गयी " सरकार से यह सम्मेलन अनुरोध करता है कि देश के सर्वविध कल्याण को ध्यान में रखते हुए भारतीय धर्म और संस्कृति के प्रतीक गोवंश की हत्या कानून द्वारा प्रतिबन्ध लगा दे। कदाचित सरकार ने अक्षया त्रतीय   २३ तदनुसार २८ अप्रैल  १९९८ तक सम्मेलन के अनुरोध पर ध्यान नही दिया तो अखिल भारतीय धर्म संघ देश की राजधानी दिल्ली मे सम्पुर्ण गो हत्याबंदी के लिए अंहिसात्मक सत्याग्रह प्रारम्भ कर देगा। उक्त घोषणा के पश्चात्  शिष्ट मण्डलो गो रक्षा सम्मेलनो जन सभाओ हस्ताक्षर आन्दोलन एवं स्मरण पत्रों  द्वारा सरकार के कर्ण धारो को गोहत्या बंदी की मॉग का औचित्य एवं अनिर्वायता समझाने की भरसक चेष्टा  की गयी; किंतु सरकार के कानपर जू तक नही रेंगी।

गोरक्षा - आन्दोलन का संक्षिप्त इतिहास


गोवंश सदैव से भारतीय धर्म कर्म एंव संस्कृति का मूलाधार रहा है। कृषि प्रधान देश होने से भारतीय अर्थव्यवस्था    का स्त्रोत  रहा है। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अमर सैनानियो-लोकमान्य तिलक महामना मालवीय गोखले  आदि ने  यह घोषणा की थी स्वराज्य मिलते ही गोवध तुरना बंन्द कराया जायगा। उपयुर्क्त नेताओं की घोषणाओ को ध्यान में रखते हुए भारतीय जनता को आशा थी कि अंग्रजी शासन चले जाने के साथ ही साथ गोहत्या का कलंक  भी इस देश से मिट जायगा। किन्तु वह आशा फलीभूत नहीं हुई। इसे देश का दुभार्ग्य ही कहा जायगा

स्वाधीनता सग्रामं और गौ रक्षा


मुस्लिम काल में छत्रपति  शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरुगोविन्दसिह आदि वीरो ने गो हत्या के कलंक  के विरुद्ध निरन्तर संघर्ष किया। शिवाजी ने बाल्यावस्था मे ही एक गोहत्या कसाई का वध कर गाय को मुक्त कर अपनी गोभक्ति का परिचय दिया। गुरु गोविन्दसिंहजी महाराज ने तो सिखपंथ की स्थापना ही गोघात का कलंक  मिटाने के उद्देश्य से की। उनहोने अपनी आराध्य देवी नेनोदेवी से एक वर मांगा था -गोघात का दुख जगत से मिटाउ॔। गुरु तेगबहादुर गुरु अजुर्नदेव आदि सिख गुरुओं के बलिदान हिन्दूधर्म तथा गौमाता की रक्षा के लिए हुए थे।

गौ सेवा की महिमा विष्णुधमोर्तरपुराणमे


विपत्ति  मे या कीचड मे फॅसी हुई या चोर तथा बाघ आदि के भय से व्याकुल गौ को क्लेश से मुक्त कर मनुष्य  अवमेधयज्ञ का फल प्राप्त करता है रुग्णावस्था मे गौओ को औषधि प्रदान करने से स्वंय मनुष्य  सभी रोगो से मुक्त हो जाता है गौओ को भय से मुक्त कर देनेपर मनुष्य  स्वय भी सभी भयो से मुक्त हो जाता हे चण्डाल के हाथ से गौको खरीद लेनेपर गोमेधयज्ञ का फल प्राप्त होता है तथा किसी अन्य के हाथ से गायको खरीदकर उसका पालन करन से गोपालक को गोमेधयज्ञका ही फल प्राप्त होता है। गौओ की शीत  तथा धूप से रक्षा करनेपर स्वर्ग की प्राप्ति  होती है। गौओ के उठने पर उठ जाय और बैठने पर बैठ जाय। गौओं के भोजन कर लेनेपर भोजन करे और जल पी लेने पर स्वय भी जल पीये। गो मूत्र् से स्नान करे और अपनी जीवन यात्रा  का गोदुग्ध पर अथवा गोमय से निस्रत जौ द्वारा निर्वाह करे । इसी का नाम गोव्रत है। 6 माह तक ऎसा करने वाले गोव्रती के सम्पुर्ण पाप सर्वथा नाश हो जाते है।

गौ सेवा का अनन्त फल


जो पुरुष गौओ की सेवा और सब प्रकार से उनका अनुगमन करता है |  गौए उसे अत्यन्त दुलर्भ वर प्रदान करती है। गौओ के साथ मनसे भी द्रोह न करे उन्हें  सदा सुख पहुचाए उनका यथोचित सत्कार करे ओर नमस्कार आदि  के द्वारा उनकी पूजा  करे। जो मनुष्य  जितेन्द्रिय और प्रसन्नचित्त  होकर नित्य गौओ की सेवा करता है वह समर्द्धि   का भागी होता है।

गौ भक्त के लिए कुछ भी दुलर्भ नही

गौ भक्त मनुय जिस जिस वस्तु की इच्छा करता है वह सब उसे प्राप्त होती है! स्त्रियों  में भी जो गौओं की भक्त हैं वे मनोवांछित कामनाएं प्राप्त कर लेती हैं! पुत्रार्थी   मनुष्य पुत्र पाता है और कन्यार्थी कन्या! धन चाहने वाले को धन और धर्म चाहने वाले को धर्म प्राप्त होता है! विद्यार्थी विद्या पाता है और सुखार्थी सुख! गौ भक्त के लिए यहां कुछ भी दुलर्भ नही है!

Saturday, May 15, 2010

हिन्दी लोकोक्तियों में गाय

भाषा और संस्कृति समाज का प्रतिबिम्ब है। इसके अध्ययन से सामाजिक संरचना का आभास लगाया जा सकता है। दरअसल, संस्कृति के विकास को ही भाषा दर्शाती है तथा इसके परिवर्तन को सही दिशा संस्कृति से मिलती है।

भिन्न-भिन्न प्रतीकों के माध्यम से संस्कृति के सभी तथ्यों को भाषा अपनी विशिष्ट शैली में अभिव्यक्त करती है। मुहावरे तथा लोकोक्तियां भाषा के वे स्वरूप हैं जो स्थानीय हावो-हवा से बनती है। भारतीय समाज में गाय को लेकर अत्यधिक आदर भाव है। उसके ऊपर अनेक लोकोक्तियां प्रचलित हैं। इससे गाय के प्रति भारतीय समाज में व्याप्त व्यापक दृष्टिकोण, एवं जीवन में गाय को सर्वाधिक महत्व देते हुए दिखाया गया है।

भारतीय भाषाओं में प्रचलित कई लोकोक्तियां गाय से जुड़ी है। इससे भारतीय समाज के गाय सम्बन्धी जीवन-दर्शन को समझा जा सकता है। हिन्दी भाषा में प्रचलित लोकोक्तियां निम्नलिखित है।

1. गाय कहां घोंचा घोंघियाय कहां- गाय कहीं और खड़ी है घोंचे (उसके दूहने के बर्तन) से आवाज किसी और जगह से आ रही है। कारण और परिणाम में असंगति होने पर ऐसा कहते हैं।

2. गाय का दूध् सो माय का दूध- गाय का दूध माता के दूध के समान होता है, अर्थात् गाय का दूध काफी लाभप्रद होता है।

3. गाय का धड़ जैसा आगे वैसा पीछे- पवित्रता के लिहाज से गाय का अगला तथा पिछला दोनों धड़ समान माना जाता है। कहावत का आशय यह है कि समदर्शी व्यक्ति को सभी श्रद्धा से देखते हैं।

4. गाय का बच्चा मर गया तो खलड़ा देख पेन्हाई- वियोग हो जाने पर बिछुडने वाले के चित्र आदि रूप देख कर भी तसल्ली होती है।

5. गाय की दो लात भली- सज्जन व्यक्तियों की दो चार बातें भी सहन करनी पड़ती हैं।

6. गाय की भैंस क्या लगे- अर्थात् कोई संबंध नहीं है। जब किसी का किसी से कोई संबंध न हो फिर भी वह उससे संबंध जोड़ना चाहे तो यह लोकोक्ति कहते हैं।

7. गाय के कीड़े निबटें, कौवा का पेट पले- कौआ आदि पक्षी, पशुओं के शरीर के कीड़े मकोड़े खाते रहते हैं। इससे पशुओं की कुछ हानि नहीं होती किंतु पक्षियों को भोजन मिल जाता है। यदि कोई छोटा आदमी किसी बड़े आदमी के सहारे जीवनयापन करे तो उसके प्रति ऐसा कहते हैं।

8. गाय के अपने सींग भारी नहीं होते- अपने परिवार के लोग किसी को बोझ नहीं मालूम पड़ते।

9. गाय गई साथ रस्सी भी ले गई- गाय तो हाथ से गई ही साथ में रस्सी उसके गले में बंधी थी वह भी ले गई। (क) जब कोई अपनी हानि के साथ-साथ दूसरों की भी हानि करता है, तब ऐसा कहते हैं। (ख) जब एक हानि के साथ ही दूसरी हानि भी हो जाए तो भी ऐसा कहा जाता है।

10. गाय चरावें रावत, दूध पिए बिलैया- गाय तो रावत चराते हैं और दूध् बिल्ली पीती है, अर्थात जब श्रम कोई और करे तथा उसका लाभ कोई और उठावे तब ऐसा कहते हैं।

11. गाय तरावे भैंस डुबावे-

(क) गाय की पूंछ पकड़ कर नदी या नाला पार करना पड़े वह पार ले जाती है किंतु भैंस पानी में प्रसन्न रहती है इस कारण वह बीच में ही रह जाती है और पार करने वाला डूब जाता है

(ख) भले लोगो की संगति मनुष्य का कल्याण हो जाता है और बुरे लोगों की संगति से हानि सहन करनी पडती है।

12. गाय न बाछी नींद आवे आछी- जिनके पास गाय, बछड़े या बछिया आदि नहीं होती उन्हें खूब नींद आती है, अर्थात निर्धन व्यक्ति निश्चित होकर सोता है।

13. गाय न्याणे की, बहू ठिकाने की- गाय वह अच्छी होती है जिसे न्याणो पर दूध् देने की आदत हो और बहू वह अच्छी होती है जो अच्छे खानदान की हो। (न्याणा-एक रस्सी जो दूध निकालते समय गाय के पिछले पैरों में बांधी जाती है)।

14. बांगर क मरद बांगर क बरद- बांगर (ऐसी भूमि जो नदी के कछार से बहुत दूर हो) के बैलो और किसानों को साल में एक दिन भी आराम नहीं मिलता। उन्हें सदा ही काम करना पड़ता है।

15. बैल तरकपस टूटी नाव, ये काहू दिन दे हैं दांव- टूटी हुई नाव तथा चौंकने वाले बैल का कभी विश्वास नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये किसी भी समय धोखा दे सकते हैं।

16. बैन मुसहरा जो कोई ले राज भंग पल में कर दे, त्रिया बाल सब कुछ-कुछ गया, भीख मांगी के घर-घर खाये- जो लटकती डील वाले बैल को मोल लेता है उसका राज क्षण-भर में नष्ट हो जाता है। स्त्री, बाल-बच्चे छूट जाते हैं तथा घर भीख मांग कर खाने लगता है, अर्थात उपरोक्त ढंग के बैल अशुभकारी होते हैं।

17. बैल लीजे कजरा, दाम दीजै अगरा- काली आंखों वाले बैल को पेशगी दाम देकर खरीद लेना चाहिए। अर्थात इस तरह के बैल बहुत अच्छे होते हैं।

उपरोक्त लोकोक्तियों के द्वारा यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज के संस्कारों एवं उनके अनुभवों को भाषा के द्वारा गाय के माध्यम ये जनमानस को बांटने की कोशिश कि गयी है। गाय के लिए सम्मान एवं उसकी सुरक्षा भारतीय भाषाओं के भाषाई तत्वों द्वारा पूरी तरह स्पष्ट होती है।

-रक्षाराम पाण्डेय

कैंसर को पनपने से रोकता है गाय का घी

गाय के घी को पवित्र मानने की प्राचीन भारतीय परंपरा को एक नई वैज्ञानिक खोज से समर्थन मिला है। वैज्ञानिकों ने साबित किया है कि गाय के घी में कैंसर से लड़ने की अचूक क्षमता होती है। उनके मुताबिक इसके सेवन से स्तन तथा आंत के खतरनाक कैंसर से बचा जा सकता है तथा इस घातक बीमारी के फैलने की गति को भी कम किया जा सकता है।

राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान (एनडीआरआई) करनाल के एनीमल बायोकैमिस्ट्री विभाग के अध्यक्ष डॉ. वी.के. कंसल ने अपने दो सहयोगियों के साथ गाय के घी पर छह साल तक शोध किया। शोध के निष्कर्ष बताते हैं कि गाय का घी न सिर्फ कैंसर को पैदा होने से रोकता है बल्कि इस बीमारी के फैलने की गति को भी आश्चर्यजनक ढंग से कम कर देता है।

शोधकर्ताओं ने चूहों के दो समूहों को कैंसर पैदा करने वाली डीएमएच नामक ड्रग दी। इनमें से एक समूह को सोयाबीन तेल तथा दूसरे को गाय के घी की नियमित खुराक दी गई। दोनों समूहों में कैंसर पैदा होने और उसके फैलने की गति अलग-अलग पाई गई। सोयाबीन तेल खाने वाले समूह में जहां साल भर बाद कैंसर फैलने की गति 65.4 प्रतिशत निकली, वहीं गाय का घी पर पलने वाले चूहों में कैंसर के बढ़ने की रफ्तार आधे से भी कम 26.6 प्रतिशत पाई गई।

घी खाने वाले समूह के चूहों में ट्यूमर भी पहले समूह के चूहों के मुकाबले काफी छोटे पाए गए। और वे अपेक्षाकृत ज्यादा स्वस्थ भी थे। घी के रोगनाशी गुणों पर अपने तरह का पहला शोध प्रतिष्ठित ‘इंडियन जनरल ऑफ मेडिकल रिसर्च’ में प्रकाशित होने के लिए स्वीकृत कर लिया गया है।

प्रेमचंद की गाय

उन दिनों प्रसिद्ध उपन्यास-लेखक मुंशी प्रेमचंद गोरखपुर में अध्यापक थे। उन्होंने अपने यहाँ गाय पाल रखी थी। एक दिन चरते-चरते उनकी गाय वहाँ के अंग्रेज़ जिलाधीश के आवास के बाहरवाले उद्यान में घुस गई। अभी वह गाय वहाँ जाकर खड़ी ही हुई थी कि वह अंग्रेज़ बंदूक लेकर बाहर आ गया और उसने ग़ुस्से से आग बबूला होकर बंदूक में गोली भर ली।
उसी समय अपनी गाय को खोजते हुए प्रेमचंद वहाँ पहुँच गए। अंग्रेज़ ने कहा कि 'यह गाय अब तुम यहाँ से ले नहीं जा सकते। तुम्हारी इतनी हिम्मत कि तुमने अपने जानवर को मेरे उद्यान में घुसा दिया। मैं इसे अभी गोली मार देता हूँ, तभी तुम काले लोगों को यह बात समझ में आएगी कि हम यहाँ हुकूमत कर रहे हैं।' और उसने भरी बंदूक गाय की ओर तान दी।

प्रेमचंद ने नरमी से उसे समझाने की कोशिश की, 'महोदय! इस बार गाय पर मेहरबानी करें। दूसरे दिन से इधर नहीं आएगी। मुझे ले जाने दें साहब। यह ग़लती से यहाँ आई।' फिर भी अंग्रेज़ झल्लाकर यही कहता रहा, 'तुम काला आदमी ईडियट हो - हम गाय को गोली मारेगा।' और उसने बंदूक से गाय को निशान बनाना चाहा।

प्रेमचंद झट से गाय और अंग्रेज़ जिलाधीश के बीच में आ खड़े हुए और ग़ुस्से से बोले, 'तो फिर चला गोली। देखूँ तुझमें कितनी हिम्मत है। ले। पहले मुझे गोली मार।' फिर तो अंग्रेज़ की हेकड़ी हिरन हो गई। वह बंदूक की नली नीची कर कहता हुआ अपने बंगले में घुस गया। 

पर्यावरण और गाय

  • कृषि, खाद्य, औषधि और उद्योगों का हिस्सा के कारण पर्यावरण की बेहतरी में गाय का बड़ा योगदान है ।
  • प्राचीन ग्रंथ बताते हैं कि गाय की पीठ पर के सूर्यकेतु स्नायु हानिकारक विकीरण को रोख कर वातावरण को स्वच्छ बनाते हैं । गाय की उपस्थिति मात्र पर्यावरण के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान है ।
  • भारत में करीब ३० करोड़ मवेशी हैं । बायो-गैस के उत्पादन में उनके गोबर का प्रयोग कर हम ६ करोड़ टन ईंधन योग्य लकड़ी प्रतिवर्ष बचा सकते हैं । इससे वनक्षय उस हद तक रुकेगा ।
  • गोबर का पर्यावरण की रक्षा में महत्वपूर्ण भाग है ।
  • गोबर के जलन से वातावरण का तापमान संतुलित होता है और वायु के कीटाणुओं का नाश |
  • गोबर में विष, विकिरण और उष्मा के प्रतिरोध की क्षमता होती है । जब हम दीवारों पर गोबर पोतते हैं और फर्श को गोबर से साफ करते हैं तो रहनेवालों की रक्षा होती है । १९८४ में भोपाल में गैस लीक से २०,००० से अधिक लोग मरे । गोबर पुती दीवारों वाले घरों में रहने वालों पर असर नहीं हुआ । रूस और भारत के आणविक शक्ति केंद्रों में विकीरण के बचाव हेतु आज भी गोबर प्रयुक्त होता है ।
  • गोबर से अफ्रीकी मरूभूमि को उपजाऊ बनाया गया ।
  • गोबर के प्रयोग द्वारा हम पानी में तेजाब की मात्रा घटा सकते हैं ।
  • जब हम संस्कार कर्मों में घी का प्रयोग करते है तो ओजोन की परत मजबूत होती है और पृथ्वी हानिकारक सौर विकिरण से बचती है ।
  • बढ़ते हुए कल्लगाहों और भूकंपों के बीच का संबंध प्रमाणित होता जा रहा है ।

Friday, May 14, 2010

हमारा देश फिर से सोने की चिड़िया बनकर चहचहा सके .....


"मैं गाय की पूजा करता हूँ | यदि समस्त संसार इसकी पूजा का विरोध करे तो भी मैं गाय को पुजूंगा-गाय जन्म देने वाली माँ से भी बड़ी है | हमारा मानना है की वह लाखों व्यक्तियों की माँ है "
- महात्मा गाँधी 

गौ मे ३३ करोड़ देवी-देवताओं का वास होता है , अतः गौ हमारे लिए पूजनीय है परन्तु क्या इन धार्मिक मान्यता  के आधार पर भी आज ही़नदुस्तान  में गौ को उसका समुचित स्थान मिल पाया है ? नहीं | 
अतः समय है आज के  (तथाकथित ) वैज्ञानिक एवं व्यापारिक युग में गौ  की उपयोगिता के उस पहलु पर भी विचार किया जाये तब शायद उसके ये मानस-पुत्र स्वर्थावास ही सही परन्तु उसकी हत्या करने के पाप से बच तो जायेंगे |
संपूर्ण जीवधारियो में गौ का एक अलग और महत्वपूर्ण स्थान है | यह स्थान ज्ञान और विज्ञान सम्मत है , ज्ञान और विज्ञान के पश्चात आध्यात्म तो उपस्थित हो ही जाता है | इस प्रकार ज्ञान , विज्ञान और आध्यात्म - इन तीन की बराबर रेखाओ के सम्मिलन से जो त्रिभुज बनता है ,उसे गाय कहते है | विद्वानों ने गाय को साक्षात् पृथ्वी-स्वरूपा बतलाया है| इस जगत के भार को जो समेटे हुए है और जगत के संपूर्ण गुणों की जो खान है उसका नाम गाय है |
हमारे पूर्वजो ने इस तथ्य को जान  लिया था और गौ सेवा को अपना धर्म बना लिया था जिसके फलस्वरुप हमारा देश "सोने की चिड़िया "बना हुआ था .....और कहा था
"सर्वे देवाः स्थिता: देहे , सर्वदेवमयी हि गौ: |"
परन्तु हम इसे भूल गए | यह भारत के अध:पतन की पराकास्ठा है की स्वतंत्रता मिलने के पश्चात भी यह नित्य-वन्दनीय गौ मांस का व्यापार फल=फूल रहा है | गौमांस का आतंरिक उपभोग बढ़ रहा है , बीफ खाना आज आधुनिकता की पहचान बन गया है | कत्लखानो का आधुनिकरण किया जा रहा है , रोज नये कत्लखाने खुल रहे है | ऐसा प्रतीत होता है स्वयं कलियुग ने गो वंश के विनाश का बीड़ा उठा लिया हो | अंग्रेजो ने "गोचरों " को हड़पने के लिए जो घिनौना खेल खेला था हम आज भी उसी मे फंसे हुए है |
आधुनिक अर्थशास्त्र ने भी हिन्दुस्थान के गौवंश के विनाश मे परोक्ष रूपा से सहयोग दिया | डॉ. राव , मुखर्जी , नानालती और अन्जारिया के विचारो को फैलाया गया जिन्होंने कहा था-" भारत पर गौवंश एक बोझ है , 70 % भारतीय गाय दूध नही देती , कृषि के लिए बैल अनुपयुक्त है " जो की सरासर एक सफ़ेद झूठ है" जबकि भारतीय अर्थशास्त्रियों मसलन डॉ. राईट के अनुसार 1940 के दशक के रूपये के अनुसार सिर्फ गाय और बैलो से प्राप्त दूध, दूध से बने पदार्थ, हड्डियाँ एवं चमड़ा , बैल-श्रम तथा खाद के माध्यम से एक हजार दस (1010 ) करोड़ के मूल्य की प्राप्ति होती है |एक सोची समझी साजिश ही प्रतीत होती है जो भारतीय गौवंश का विनाश के लिए तैयार की गयी है....मसलन यह के कृषकों को यह कहना की यह की गाये सर्फ 600 पौंड दूध ही देती है अतः विदेशी एवं संकर गाय जो 5000पौंड दूध देती है के बिना उनका जीवन नही चल पायेगा जबकि सेना एवं अन्य जगहों पर से आये औसत कुछ और ही बयां करता है.....भारतीय गायों के प्रजातियों के अनुसार यह 6000 -10000 पौंड तक का पाया गया |
अतः एक बात तो स्पष्ट है.."आधुनिक एवं अंग्रेज विद्वानों ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से भारतीय गौवंश को कत्लखाने की तरफ धकेलने का प्रयास किया " आज स्थिति यह है की अत्यंत उपयोगी एवं युवा गौवंश को कत्लखानो मे भेजा जा रहा है | आचार्य विनोबा भावे ने तो इस गौवंश के प्राण रक्षा के लिए अपने ही प्राण उत्सर्ग कर दिए |परन्तु विडम्बना है की उनके बलिदान की किसी ने भी सुध नही ली| 

गौ वंश की वैज्ञानिक , व्यापारिक एवं पर्यावरण के दृष्टिकोण से उपयोगिता 

गाय के दूध की उपयोगिता से भला कौन परिचित नही है , इसकी उपोगिता को देखते हुए इसे सर्वोत्तम आहार कहा गया और इसकी तुलना अमृत से की गयी | गाय के दूध मे इसे अनेक विशेषता है जो किसी और दूध मे नही ...यह स्वर्ण से प्रचुर होता है...जिसके कारण इसके दूध का रंग पीला होता है , केवल गाय के दूध मे ही विटामिन "ए" होता है और अपनी अन्य खूबियों की वजह से यह शरीर मे उत्पन्न विष को समाप्त कर सकता है , एवं कर्क रोग (कैंसर ) की कोशिकाओ को भी समाप्त करता है 
गाय के घी से हवन मे आहुति देने से वातावरण के कीटाणु समाप्त हो जाते है 
गाय के गोबर को जलाने से एक स्थान विशेष का तापमान कभी एक सीमा से उपर नही जा पता, भोजन के पोषक तत्त्व समाप्त नही हो पाते और धुंए से हवा के विषाणु समाप्त हो जाते है |गाय के गोबर से बने खाद मे nitrogen 0 .5-1 .5 % , phosphorous 0 .5 -0 .9 % और potassium 1 .2 -1 .4 % होता है जो रासायनिक खाद के बराबर है ....और जरा भी जहरीला प्रभाव नही डालता फसलों पर | यह प्रभावशाली प्रदूषण नियंत्रक है , गाय के गोबर से सौर-विकिरण का प्रभाव भी समाप्त किया जा सकता है |"गोबर पिरामिड " से बड़ी मात्रा मे सौर उर्जा का अवशोषण संभव है | 
तालाबों मे गाय का गोबर डालने से पानी का अम्लीय प्रभाव समाप्त हो जाता है , गोबर के छिडकाव से कूड़े की बदबू समाप्त हो जाती है | लाखों वर्षों तक गोबर के खाद के प्रयोग से भारती की उर्वरा समाप्त नही हुई किन्तु अभी 60 -७० वर्षो मे रासायनिक खादों के प्रयोग से लाखों hectare भूमि बंजर हो गयी 
आज भी हिरोशिमा और नागाशाकी के निवासी परमाणु विकिरणों से सुरक्षा के लिए गोरस से भिगो कर रात्रि मे कम्बल पहनते है 
गोमूत्र में नीम की पत्तियों का रस डाल कर एक बेहद असरदार और हानिरहित जैव-कीटनाशक का निर्माण होता है जो पौधों की वृद्धि , कीटनाशक , फफूंद नियंत्रक एवं रोग नियंत्रक का कार्य करता है | यह पर्यावरण की पूरी श्रृंखला शुद्ध करता है 
गोमूत्र का अर्क फ्लू , गठिया , रासायनिक कुप्रभाव , लेप्रोसी , hapatitis , स्तन कैंसर , गैस , ulcer , ह्रदय रोग , अस्थमा के रोकथाम मे सर्वथा उपयोगी है यह बालो के लिए conditioner का कार्य भी करता है 
प्रति वर्ष पशुधन से 70 लाख टन पेट्रोलियम की बचत होती है | 60 अरब रुपये का दूध प्राप्त होता है , 30 अरब रुपये की जैविक खाद प्राप्त होती है , 20 करोड़ रुपये की रसोई गैस प्राप्त होती है .....यह आंकड़े खुद बा खुद यह बयां करते है की गो माता राष्ट्रीय आय मे वृद्धि का ईश्वर प्रद्दत श्रोत है
आठो ऐश्वर्य लेकर देवी लक्ष्मी गाय के शरीर मे निवास करती है |- इस कथन का गूढ़ार्थ राष्ट्र लक्ष्मी की और संकेत करता है जो हम उपर देख चुके है तो क्या अब ये हमारा दायित्व नही बनता है की हम पुनः गौ माता को उनका स्थान प्रदान करे ताकि हमारा देश फिर से सोने की चिड़िया बनकर चहचहा सके .............

"कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का दारोमदार गोवंश पर निर्भर है | जो लोग यंत्रीकृत फार्मों के और तथाकथित वैज्ञानिक तकनीकियो के सपने देखते है , वे अवास्तविक संसार मे रहते है "
-लोकनायक जयप्रकाश नारायण 

राष्ट्र का प्राण है गाय


सीकर। पौष माह की गोधूली बेला और गो भक्तों का लगता रैला। कहीं कलश यात्रा तो कहीं वाहन रैली। जगह-जगह स्वागत द्वारों और केसरिया ध्वजों के रंग में रंगा शहर का चप्पा-चप्पा। पुष्पों की पंखुडियों से महकती राहें और गो माता की जयकार से गूंजता आसमान। कुछ ऎसे ही नजारे शुक्रवार को दिखाई दिए शेखावाटी अंचल के सीकर, फतेहपुर और रतगनढ़ कस्बे में।अंचलवासियों ने विश्व मंगल गो ग्राम की मुख्य यात्रा के स्वागत में पलक पांवड़े बिछा दिए। लोगों का उत्साह और जोश इस तरह उमड़ा कि सीकर का रामलीला मैदान और फतेहपुर की बुधगिरी मढ़ी का वातावरण गोकुलमय हो गया। गाय की वंदना और अर्चना के लिए अंचलवासी उमड़ पड़े और पुष्प वर्षा कर अपनी भावनाओं का इजहार किया। इसके बाद हर दिल से एक पुकार उठी ... गाय बचेगी तो देश बचेगा। चलें गाय की ओर... चलें गांव की ओर ... चलें प्रकृति की ओर... सरीखे स्लोगन की सार्थकता शुक्रवार को सजीवता से नजर आई।
राष्ट्रीय प्राणी घोषित करने की मांग
फतेहपुर में बुधगिरी मढ़ी और सीकर शहर में रामलीला मैदान में आयोजित विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा के मुख्य समारोहों को संबोधित करते हुए कर्नाटक की गोकर्ण पीठ के जगद्गुरूशंकराचार्य राघवेश्वर भारती ने अंचलवासियों से गो रक्षा के लिए आगे आने, उसका पालन और संरक्षण करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि हमारी तीन माताएं हैं। जन्म देने वाली माता, धरती माता व गो माता। जन्म देने वाली माता हमारा लालन पालन करती है। उसका पालन धरती माता करती है और धरती माता का लालन पालन व उसकी उवर्रक क्षमता गो माता बढ़ाती है। इस त्रिकोण की रक्षा व देश को टूटने से बचाने के लिए गो माता की रक्षा करनी होगी। राघेश्वर भारती ने कहा कि शंकराचार्य पद पर भिक्षु हैं। भिक्षु बनकर आन्दोलन के लिए आपसे आपको मांगने आए हैं। उन्होंने कहा कि जीवन हो गाय के लिए व मृत्यु हो गाय के लिए। यहीं भिक्षा आपसे मांगने आए हैं।यह ऎच्छिक नहीं हमारा कर्तव्य है। अपने माता-पिता व गुरूके प्रति कर्तव्य है उसी तरह गो माता के प्रति हमारा कर्तव्य है। विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा के राष्ट्रीय सचिव शंकरलाल ने कहा कि देश को गाय के माध्यम से प्रदूषण व रोग मुक्त तथा स्वावलम्बी बनाना होगा। आज गाय की दुर्दशा के कारण जल, जमीन और जीवन नष्ट हो रहा है। अब लोगों को गाय के गोबर घी, दूध, दही व गोमूत्र की आर्थिक महत्ता समझ में आने लगी है। दूध, घी व दही से रोगों को दूर किया जाने लगा है। देश में बढ़ते अपराध का मुख्य कारण भी गो माता की उपेक्षा है। सन 1947 में देश में करीब 43 करोड़ गोधन था, जो आज महज 10 करोड़ रह गया है। देश में प्रतिदिन करीब एक लाख व एक वर्ष में तीन करोड़ गायों को काटा जा रहा है। इसलिए देश को बचाने के लिए गायों को बचाना होगा। सीकर में समारोह से पहले महिलाओं ने कलश यात्रा निकाली। उसके बाद यात्रा के आगमन पर उसे वाहन रैली के साथ शहर के प्रमुख मार्गो से होते हुए यात्रा को रामलीला मैदान लाया गया। यहां शंकराचार्य ने गो माता की पूजा कर समारोह का शुभारंभ किया। सीकर शहर में आयोजित समारोह के अंत में रैवासा पीठाधीश्वर राघवाचार्य महाराज ने उपस्थित सभी लोगों को गो रक्षा का संकल्प दिलाया। सभी समस्याओं का मूल गो हत्या है और सभी तरह की शुद्धि का मूल गो रक्षा है। गाय एक प्राणी नहीं बल्कि यह राष्ट्र का प्राण है। राष्ट्र प्राण को राष्ट्रीय प्राणी घोषित करना ही चाहिए। आज देश में गाय को राष्ट्रीय प्राणी घोषित नहीं कर हम जीवन की जड़ों को काट रहे हैं। गाय हमारे जीवन में उसी तरह महत्वपूर्ण है जिस तरह इमारत के लिए नींव व पेड़ के लिए जड़। -
शिखर पर पहुंचाएं
सीकर। शंकराचार्य राघवेश्वर भारती ने कहा कि शेखावाटी के बारे में सुना था। आज आंखों से देखने का मौका मिला है। सीकर वाले यात्रा को शिखर तक पहुंचाएं। इतिहास पुरूष पैदा करने वाली शेखावाटी की भूमि को नमन करता हूं। गाय बचाने के इस महासंग्राम में भी शेखावाटी का योगदान आवश्यक है। उन्होंने कहा कि यात्रा में सीकर का योगदान शिखर जैसा होना चाहिए।
गो पूजा से शुभारम्भ
समारोह का शुभारम्भ कामधेनु ध्वजारोहण से किया गया। इस दौरान शंकराचार्य राघवेश्वर भारती को समिति की महिला प्रभारी कृष्णा शेखावत ने गाय की पूजा करवाई। उन्होंने गाय की पूजा कर महाआरती की। बाद में मंच पर समिति के पदाधिकारियों की ओर से उनका फूल माला पहनाकर स्वागत किया गया।वैदिक आश्रम में मंत्रणागोकर्ण पीठाधीश्वर जगदगुरू शंकराचार्य राघवेश्वर भारती शुक्रवार रात को वैदिक आश्रम पिपराली पहुंचे। वहां पर उन्होंने स्वामी सुमेधानंद सरस्वती के साथ करीब आधा घंटे तक मंत्रणा की। इससे पहले स्वामी सुमेधानंद सरस्वती और आश्रम के कार्यकर्ताओं ने शंकराचार्य का भावभीना स्वागत किया। इस दौरान गाय के विषय पर विस्तार से चर्चा की गई। साथ ही वेद, संस्कृत, संस्कृति और राष्ट्रधर्म पर भी बातचीत हुई। इसके बाद शंकराचार्य नीमकाथाना के लिए प्रस्थान कर गए।
नहीं आदेश दिया
उन्होंने कहा कि हम पांच साल के अधिकारी नहीं हैं। हमें वोट नहीं चाहिए। हम कोई उद्योगपति व व्यापारी भी नहीं है। हम गो माता की प्राण रक्षा के लिए आए हैं। शेखावाटी के लोगों को आदेश देते है कि वे माता को कटने नहीं देंगे। गाय हत्या, गो तस्करी नहीं हो इसके लिए हर संभव प्रयास करेंगे। भगवान शिव की आराधनासमारोह के बाद शंकराचार्य राघवेश्वर भारती ने समुत्कर्ष भवन में संध्या आरती की। करीब एक घंटे के दौरान उन्होंने भगवान शिव की भव्य आरती की। आरती के दौरान शहर में प्रमुख लोग उपस्थित थे। संतो के अनुसार शंकराचार्य की वर्षों की परम्परा के अनुसार शाम की आरती करीब एक घंटे तक की जाती है।
अभी तक नहीं हुए संगठित प्रयास -शंकराचार्य
जगदगुरू शंकराचार्य राघवेश्वर भारती का मानना है कि गो रक्षार्थ देशभर में अभी तक संगठित प्रयास नहीं हुए हैं। हालांकि गो माता को बचाने के लिए अनेक आंदोलन और अभियान चलाए गए, लेकिन संतों ने सेना की तरह व्यूय रचना कर एक स्वर में अभियान को गति नहीं दी। विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा के जरिए देश भर के संतों को जोड़ा जा रहा है। इस तरह यह अभियान पूरी तरह संगठित और एक है।
राजस्थान पत्रिका से विशेष वार्ता
विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा के मुख्य यात्रा समारोह के बाद शुक्रवार रात को समुत्कर्ष भवन में शंकराचार्य ने राजस्थान पत्रिका से विशेष वार्ता में यह बात कही। प्रस्तुत से बातचीत के मुख्य अंश-पत्रिका- गाय के प्रति आदर तो है लेकिन वह घर-घर से दूर है।
शंकराचार्य- भौतिक और आर्थिक युग में लोगों की सोच बदल गई है। इस कारण गाय के प्रति लोगों में समर्पण तो है, लेकिन वह घर-घर में नहीं रखी जा रही है। हालांकि गाय से धार्मिक और आध्यात्मिक लाभ मिलता है। साथ ही गाय आर्थिक संबल प्रदान करती है। इस पक्ष को मजबूत करने के लिए हम गो मूत्र और गोबर आधारित वृहद् उद्योग स्थापित कर रहे हैं।
पत्रिका- आपकी प्रमुख मांग क्या है?
शंकराचार्य- गाय के साथ अत्याचार हो रहा है। गाय भारतीय संस्कृति, धर्म और सत्यता की प्रमुख आधार स्तम्भ है। गाय रहेगी तो संस्कृति बचेगी और देश सुरक्षित रहेगा। इसलिए गाय को राष्ट्रीय प्राणी घोषित करने की मांग की जा रही है।
पत्रिका- गो रक्षा के लिए क्या सरकार के प्रयास पर्याप्त हैं।
शंकराचार्य- सरकार, नेता और राजनीति से यह आंदोलन परे है। यह आंदोलन जनता की तरफ है ना कि सरकार की तरफ। हमारा अभियान गाय के प्रति आमजन को जागरूक कर उन्हें गाय के प्रति एकजुट करने का है। यदि हम देशवासियों को इस अभियान से जोड़ने में सफल हो जाते हैं तो नेता स्वयं मजबूर हो जाएंगे।
पत्रिका- देश भर में 33 हजार से अधिक गो कत्लखाने हैं। इन कत्लखानों को बंद करने के लिए संत आमरण अनशन क्यों नहीं करते।
शंकराचार्य- इसके लिए हम आंदोलन करेंगे। हम बलिदान के लिए तैयार हैं, लेकिन बलिदान निरर्थक और व्यर्थ नहीं हो इसके लिए संगठित होकर आंदोलन करेंगे।
स्त्रोत : http://www.patrika.com/news.aspx?id=297552सीकर। पौष माह की गोधूली बेला और गो भक्तों का लगता रैला। कहीं कलश यात्रा तो कहीं वाहन रैली। जगह-जगह स्वागत द्वारों और केसरिया ध्वजों के रंग में रंगा शहर का चप्पा-चप्पा। पुष्पों की पंखुडियों से महकती राहें और गो माता की जयकार से गूंजता आसमान। कुछ ऎसे ही नजारे शुक्रवार को दिखाई दिए शेखावाटी अंचल के सीकर, फतेहपुर और रतगनढ़ कस्बे में।अंचलवासियों ने विश्व मंगल गो ग्राम की मुख्य यात्रा के स्वागत में पलक पांवड़े बिछा दिए। लोगों का उत्साह और जोश इस तरह उमड़ा कि सीकर का रामलीला मैदान और फतेहपुर की बुधगिरी मढ़ी का वातावरण गोकुलमय हो गया। गाय की वंदना और अर्चना के लिए अंचलवासी उमड़ पड़े और पुष्प वर्षा कर अपनी भावनाओं का इजहार किया। इसके बाद हर दिल से एक पुकार उठी ... गाय बचेगी तो देश बचेगा। चलें गाय की ओर... चलें गांव की ओर ... चलें प्रकृति की ओर... सरीखे स्लोगन की सार्थकता शुक्रवार को सजीवता से नजर आई।
राष्ट्रीय प्राणी घोषित करने की मांग
फतेहपुर में बुधगिरी मढ़ी और सीकर शहर में रामलीला मैदान में आयोजित विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा के मुख्य समारोहों को संबोधित करते हुए कर्नाटक की गोकर्ण पीठ के जगद्गुरूशंकराचार्य राघवेश्वर भारती ने अंचलवासियों से गो रक्षा के लिए आगे आने, उसका पालन और संरक्षण करने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि हमारी तीन माताएं हैं। जन्म देने वाली माता, धरती माता व गो माता। जन्म देने वाली माता हमारा लालन पालन करती है। उसका पालन धरती माता करती है और धरती माता का लालन पालन व उसकी उवर्रक क्षमता गो माता बढ़ाती है। इस त्रिकोण की रक्षा व देश को टूटने से बचाने के लिए गो माता की रक्षा करनी होगी। राघेश्वर भारती ने कहा कि शंकराचार्य पद पर भिक्षु हैं। भिक्षु बनकर आन्दोलन के लिए आपसे आपको मांगने आए हैं। उन्होंने कहा कि जीवन हो गाय के लिए व मृत्यु हो गाय के लिए। यहीं भिक्षा आपसे मांगने आए हैं।यह ऎच्छिक नहीं हमारा कर्तव्य है। अपने माता-पिता व गुरूके प्रति कर्तव्य है उसी तरह गो माता के प्रति हमारा कर्तव्य है। विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा के राष्ट्रीय सचिव शंकरलाल ने कहा कि देश को गाय के माध्यम से प्रदूषण व रोग मुक्त तथा स्वावलम्बी बनाना होगा। आज गाय की दुर्दशा के कारण जल, जमीन और जीवन नष्ट हो रहा है। अब लोगों को गाय के गोबर घी, दूध, दही व गोमूत्र की आर्थिक महत्ता समझ में आने लगी है। दूध, घी व दही से रोगों को दूर किया जाने लगा है। देश में बढ़ते अपराध का मुख्य कारण भी गो माता की उपेक्षा है। सन 1947 में देश में करीब 43 करोड़ गोधन था, जो आज महज 10 करोड़ रह गया है। देश में प्रतिदिन करीब एक लाख व एक वर्ष में तीन करोड़ गायों को काटा जा रहा है। इसलिए देश को बचाने के लिए गायों को बचाना होगा। सीकर में समारोह से पहले महिलाओं ने कलश यात्रा निकाली। उसके बाद यात्रा के आगमन पर उसे वाहन रैली के साथ शहर के प्रमुख मार्गो से होते हुए यात्रा को रामलीला मैदान लाया गया। यहां शंकराचार्य ने गो माता की पूजा कर समारोह का शुभारंभ किया। सीकर शहर में आयोजित समारोह के अंत में रैवासा पीठाधीश्वर राघवाचार्य महाराज ने उपस्थित सभी लोगों को गो रक्षा का संकल्प दिलाया। सभी समस्याओं का मूल गो हत्या है और सभी तरह की शुद्धि का मूल गो रक्षा है। गाय एक प्राणी नहीं बल्कि यह राष्ट्र का प्राण है। राष्ट्र प्राण को राष्ट्रीय प्राणी घोषित करना ही चाहिए। आज देश में गाय को राष्ट्रीय प्राणी घोषित नहीं कर हम जीवन की जड़ों को काट रहे हैं। गाय हमारे जीवन में उसी तरह महत्वपूर्ण है जिस तरह इमारत के लिए नींव व पेड़ के लिए जड़। -
शिखर पर पहुंचाएं
सीकर। शंकराचार्य राघवेश्वर भारती ने कहा कि शेखावाटी के बारे में सुना था। आज आंखों से देखने का मौका मिला है। सीकर वाले यात्रा को शिखर तक पहुंचाएं। इतिहास पुरूष पैदा करने वाली शेखावाटी की भूमि को नमन करता हूं। गाय बचाने के इस महासंग्राम में भी शेखावाटी का योगदान आवश्यक है। उन्होंने कहा कि यात्रा में सीकर का योगदान शिखर जैसा होना चाहिए।
गो पूजा से शुभारम्भ
समारोह का शुभारम्भ कामधेनु ध्वजारोहण से किया गया। इस दौरान शंकराचार्य राघवेश्वर भारती को समिति की महिला प्रभारी कृष्णा शेखावत ने गाय की पूजा करवाई। उन्होंने गाय की पूजा कर महाआरती की। बाद में मंच पर समिति के पदाधिकारियों की ओर से उनका फूल माला पहनाकर स्वागत किया गया।वैदिक आश्रम में मंत्रणागोकर्ण पीठाधीश्वर जगदगुरू शंकराचार्य राघवेश्वर भारती शुक्रवार रात को वैदिक आश्रम पिपराली पहुंचे। वहां पर उन्होंने स्वामी सुमेधानंद सरस्वती के साथ करीब आधा घंटे तक मंत्रणा की। इससे पहले स्वामी सुमेधानंद सरस्वती और आश्रम के कार्यकर्ताओं ने शंकराचार्य का भावभीना स्वागत किया। इस दौरान गाय के विषय पर विस्तार से चर्चा की गई। साथ ही वेद, संस्कृत, संस्कृति और राष्ट्रधर्म पर भी बातचीत हुई। इसके बाद शंकराचार्य नीमकाथाना के लिए प्रस्थान कर गए।
नहीं आदेश दिया
उन्होंने कहा कि हम पांच साल के अधिकारी नहीं हैं। हमें वोट नहीं चाहिए। हम कोई उद्योगपति व व्यापारी भी नहीं है। हम गो माता की प्राण रक्षा के लिए आए हैं। शेखावाटी के लोगों को आदेश देते है कि वे माता को कटने नहीं देंगे। गाय हत्या, गो तस्करी नहीं हो इसके लिए हर संभव प्रयास करेंगे। भगवान शिव की आराधनासमारोह के बाद शंकराचार्य राघवेश्वर भारती ने समुत्कर्ष भवन में संध्या आरती की। करीब एक घंटे के दौरान उन्होंने भगवान शिव की भव्य आरती की। आरती के दौरान शहर में प्रमुख लोग उपस्थित थे। संतो के अनुसार शंकराचार्य की वर्षों की परम्परा के अनुसार शाम की आरती करीब एक घंटे तक की जाती है।
अभी तक नहीं हुए संगठित प्रयास -शंकराचार्य
जगदगुरू शंकराचार्य राघवेश्वर भारती का मानना है कि गो रक्षार्थ देशभर में अभी तक संगठित प्रयास नहीं हुए हैं। हालांकि गो माता को बचाने के लिए अनेक आंदोलन और अभियान चलाए गए, लेकिन संतों ने सेना की तरह व्यूय रचना कर एक स्वर में अभियान को गति नहीं दी। विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा के जरिए देश भर के संतों को जोड़ा जा रहा है। इस तरह यह अभियान पूरी तरह संगठित और एक है।
राजस्थान पत्रिका से विशेष वार्ता
विश्व मंगल गो ग्राम यात्रा के मुख्य यात्रा समारोह के बाद शुक्रवार रात को समुत्कर्ष भवन में शंकराचार्य ने राजस्थान पत्रिका से विशेष वार्ता में यह बात कही। प्रस्तुत से बातचीत के मुख्य अंश-पत्रिका- गाय के प्रति आदर तो है लेकिन वह घर-घर से दूर है।
शंकराचार्य- भौतिक और आर्थिक युग में लोगों की सोच बदल गई है। इस कारण गाय के प्रति लोगों में समर्पण तो है, लेकिन वह घर-घर में नहीं रखी जा रही है। हालांकि गाय से धार्मिक और आध्यात्मिक लाभ मिलता है। साथ ही गाय आर्थिक संबल प्रदान करती है। इस पक्ष को मजबूत करने के लिए हम गो मूत्र और गोबर आधारित वृहद् उद्योग स्थापित कर रहे हैं।
पत्रिका- आपकी प्रमुख मांग क्या है?
शंकराचार्य- गाय के साथ अत्याचार हो रहा है। गाय भारतीय संस्कृति, धर्म और सत्यता की प्रमुख आधार स्तम्भ है। गाय रहेगी तो संस्कृति बचेगी और देश सुरक्षित रहेगा। इसलिए गाय को राष्ट्रीय प्राणी घोषित करने की मांग की जा रही है।
पत्रिका- गो रक्षा के लिए क्या सरकार के प्रयास पर्याप्त हैं।
शंकराचार्य- सरकार, नेता और राजनीति से यह आंदोलन परे है। यह आंदोलन जनता की तरफ है ना कि सरकार की तरफ। हमारा अभियान गाय के प्रति आमजन को जागरूक कर उन्हें गाय के प्रति एकजुट करने का है। यदि हम देशवासियों को इस अभियान से जोड़ने में सफल हो जाते हैं तो नेता स्वयं मजबूर हो जाएंगे।
पत्रिका- देश भर में 33 हजार से अधिक गो कत्लखाने हैं। इन कत्लखानों को बंद करने के लिए संत आमरण अनशन क्यों नहीं करते।
शंकराचार्य- इसके लिए हम आंदोलन करेंगे। हम बलिदान के लिए तैयार हैं, लेकिन बलिदान निरर्थक और व्यर्थ नहीं हो इसके लिए संगठित होकर आंदोलन करेंगे।