Saturday, August 21, 2010

आनन्दवन पथमेडा मॅ गौ वत्स पाठ्शाला का आयोजन

युवाऑ के सर्वांगिण विकास और उनमॅ आध्यात्मिकता और गौसेवा के भाव विकसित करने के लिये श्री गोधाम महातीर्थ आनन्दवन पथमेडा मॅ हो रहा हैं गौ वत्स पाठ्शाला का आयोजन 

विश्व मॅ पहली बार नवाचार करके युवाऑ को भारतीय संस्कृति एवम उसमे गौमाता के महत्व और उपादेयता और आवश्यकता के बारे मॅ जानकारी देने के साथ साथ उनका संस्कारयुक्त सर्वांगिण विकास करने के उद्देश्य से दिनाक 17 से 21 जून 2010 तक परम भागवत गौऋषि पूज्य स्वामी श्रीदतशरणानन्द्जी महाराज की पावन प्रेरणा एवम परम पूज्य मलूक पीठाधीश्वर द्वाराचार्य श्री राजेन्द्रदास जी महाराज ( वृन्दावन धाम ) के पावन सानिध्य एवं मार्गदर्शन मॆ पथमेडा मॅ आयोजित किया जा रहा है! इस कार्यक्रम मॆ युवा साथियो के लिये विभिन्न कार्यक्रम होंगे! ज़िसमे प्रतिदिन परम पुज्य संत श्री गोपालमणिजी महाराज द्वारा “गौ महिमा” पर प्रवचन, परम पूज्य प. श्री विजयशंकरजी मेहता द्वारा विशेष प्रवचन (महाभारत, रामायण व ग़ौ भक्ति) के अतिरिक्त भगवान श्री कृष्ण की अद्भुत झांकियॉ के दर्शन के साथ महाराष्ट्र के वारकरी वैष्णव भक्तो द्वारा नृत्यमय भजन गायन व वादन और श्री गोविन्द जी भार्गव (कानपुर निवासी) अपनी मधुर वाणी मॅ भजन संध्या मॆ प्रस्तुतिया देंगे ! इन सबके अतिरिक्त समस्त युवाओ को परम पुज्य बाल व्यास श्री राधाकृष्णजी महाराज का पूर्ण सानिध्य प्राप्त होगा 

पथमेडा एक परिचय 
आनंदवन पथमेड़ा भारत देश की वह पावन व मनोरम भूमि है जिसे भगवान श्री कृष्ण् ने कुरूक्षेत्र से द्वारिका जाते समय श्रावण,भादो महिने में रूककर वृन्दावन से लायी हुई भूमण्डल की सर्वाधिक दुधारू, जुझारू, साहसी, शौर्यवान, सौम्यवान, ब्रह्मस्वरूपा गायों के चरने व विचरने के लिए चुना था। गत 12 शताब्दियों से कामधेनु, कपिला, सुरभि की संतान गोवंश पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिये सन् 1993 मे राष्ट्रव्यापी रचनात्मक गोसेवा महाभियान का प्रारम्भ इसी स्थान से हुआ है।

जिसके अन्तर्गत सर्वप्रथम श्री गोपाल गोवर्धन गोशाला श्री गोधाम महातीर्थ की स्थापना कर पश्चिमी राजस्थान एवं उतर पश्चिमी गुजरात के विभिन्न क्षेत्रों में गोसेवा आश्रमों, गोसंरक्षण केन्द्रों तथा गोसेवा शिविरों की स्थापना करना प्रारम्भ किया। इस अभियान द्वारा गोपालक किसानों तथा धर्मात्मा सज्जनों के माध्यम से गोग्रास संग्रहित करके गोसेवा आश्रमों में आश्रित गोवंश के प्राण पोषण का निरन्तर प्रयास प्रारम्भ हुआ। उपरोक्त महाभियान के प्रथम चरण में क्रूर कसाइयों के चंगुल से तथा भयंकर अकाल की पीड़ा से पीड़ित लाखों गोवंश के प्राणों को संरक्षण मिल सका।

श्री गोधाम महातीर्थ की स्थापना से लेकर आजतक अत 17 वर्शो में श्री गोधाम पथमेड़ा द्वारा स्थापित एवं संचालित विभिन्न गोसेवाश्रमों में आश्रय पाने वाले गोवंश की संख्या क्रमशः इस प्रकार रही है-सन् 1993 में 8 गाय से शुभारम्भ सन् 1999 में 90000 गोवंश सन् 2000 में 90700 गोवंश सन् 2001 में 126000 गोवंश सन् 2003 में 284000 गोवंश सन् 2004 में 54000 गोवंश सन् 2005 में 97000 गोवंश सन् 2009 में 72000 हजार इस प्रकार लगातार चलते हुए वर्तमान सन् 2010 में 200000 से अधिक गोवंश सेवा में है जो की अकाल की विभीशिका के चलते बढ़ता ही जा रहा है। साथ ही प्रदेश के विभिन्न भागों में अस्थाई गोसेवा अकाल राहत शिविरों में लाखों गोवंश को आश्रय देने का कार्य प्रारम्भ हो गया है।

पथमेडा पहुंचने के लिये अहमबाद और जोधपुर से प्रत्येक घंटे रोड्वेज और प्राइवेट बसे सांचोर के लिये चलती है ( सांचोर से पथमेडा मात्र 10 किलो मीटर की दूरी पर स्थित है और साधन उपलब्ध है) 

अधिक जानकारी के लिये सम्पर्क करें 9414152163, 9414131008 02979-287102, 287122
या मेल करे mail@pathmedagodarshan.org, या www.pathmedagodarshan.org देखे 

सूचना द्वारा 
तरूण जोशी “नारद” (स्वतंत्र लेखक एव कवि )
9462274522, 9251941999 tdjoshi_narad@yahoo.co.in, model-hunter@in.com

कारतूस पश्चिम का निशाना भारतीय गौ

वेद वाक्य है, ‘गाव उपवताक्तं महीयस्य रसुदा। उमा कर्णा हिरण्यया॥’ ऋ.वे. 8-72-12 अर्थात जहां गौएं पुष्ट होती हैं, वहां की भूमि जलमय यज्ञ भूमि होती है और वहां के लोग स्वर्ण आभूषणो से सुशोभित होते हैं। (वे भुखमरी से आत्महत्या नहीं करते।) अथर्ववेद में आगे वर्णन है ‘इन्द्रेण दत्ता प्रथमा शतौदना’ अर्थात वे गाएं जो सौ मनुष्यों का भरण पोषण करती हैं।

वर्तमान भारत में तो अब शतौदना गायों की स्मृति तक नहीं रही है। लोग भूल चुके हैं कि प्राचीनकाल में भारत की समृद्धि का मूल आधार यहां की गाएं ही थीं। मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा पद्धति ने हमारे शिक्षित वर्ग को यह विश्वास दिला दिया है कि हमारे देश के पिछड़ेपन और उसकी दरिद्रता का मूल कारण हमारी प्राचीन परम्परा और उसमें आस्था ही है। यदि देश को उन्नत बनाना है तो पूरी तरह पाश्चात्य ज्ञान और तौर-तरीकों को यहां कार्यान्वित करना होगा, ऐसा उनका दृढ़ विश्वास है। सभी क्षेत्रों में सुधार का ज्ञान पाने के लिए हमारे तथाकथित विद्वान पाश्चात्य देशों में जाने के ‘सुअवसर’ को अपने जीवन का लक्ष्य मानने लगे हैं।

पूरे देश को पाश्चात्य रूप-रंग में ढालने की योजना से भला हमारी गौमाता कैसे वंचित रह सकती थी? हमारे नीति निर्धारकों ने दूध की मात्रा को गौमाता की उपयोगिता का मापदंड बना दिया। भारतीय संस्कृति का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता था। हमने अपनी कमियों को सुधारने की बजाय अपनी गौमाता पर ही कम दूध देने का लांछन लगा दिया। इतिहास गवाह है कि भारत वर्ष में जब तक गौ वास्तव में माता जैसा व्यवहार पाती थी – उसके रख-रखाव, आवास, आहार की उचित व्यवस्था थी, देश में कभी भी दूध का अभाव नहीं रहा।

दूध उत्पादन बढ़ाने के लिए हमने अपनी गौमाता की नस्ल बदलने की ठान ली। और इसके लिए कृत्रिम गर्भाधान का रास्ता अपनाया। पश्चिम की नकल करने के पहले हम यह भूल गए कि वहां गायों को दूध के साथ-साथ मांस के लिए भी पाला जाता है। वहां कम से कम समय में कम से कम खर्चे पर अधिक से अधिक दूध और मांस उत्पादन के लिए कृत्रिम गर्भाधान को सबसे कारगर माना गया। सन 1931 में रूस में सबसे पहले बड़े स्तर पर कृत्रिम गर्भाधान की योजना बनाई गई। आज लगभग सभी पाश्चात्य देशों में कृत्रिम गर्भाधान का रिवाज है।

कृत्रिम गर्भाधान के लिए वृषभ का वीर्य कृत्रिम योनि में स्खलित करवा कर एकत्रित किया जाता है। यह प्रतिदिन दो-तीन बार करते हैं। हर स्खलन में सात आठ मिलीलीटर तरल पदार्थ मिलता है जिसमें पांच सौ करोड़ तक शुक्राणु होने की सम्भावना होती है। हालांकि स्वस्थ शुक्राणुओं की संख्या स्खलन की पुनरावृत्ति के साथ वृषभ के स्वास्थ्य, आहार, आयु आदि पर निर्भर रहती है। कृत्रिम रूप से एकत्रित वीर्य को पैनीसिलीन जैसी रोग नाशक औषधियों के साथ नमक के पानी में मिलाकर सौ-दो सौ गुना विस्तार किया जाता है और इस प्रकार एक स्खलन से लगभग दो सौ तक गर्भाधान टीके बनाए जाते हैं। इन्हीं टीकों का इस्तेमाल कृत्रिम गर्भाधान के लिए किया जाता है।

भारतीय संदर्भ में गायों का कृत्रिम गर्भाधान न केवल अनैतिक है बल्कि यह अव्यावहारिक भी है। सरकारी संस्थानों में चारा घोटाला, कार्र्यकत्ताओं की लापरवाही एक सामान्य बात है। इसलिए सरकारी संस्थानों में उत्पादित गर्भाधान टीके प्राय: शुक्राणु शून्य नमकीन पानी का घोल मात्र ही रहते हैं। आंकड़ों के खेल में हर सरकारी संस्थान निर्धारित टीकों का उत्पादन जरूर दिखाता है, भले ही वे टीके बेकार हों। इन टीकों को तरल नाइट्रोजन और रेफ्रीजरेटर में 40-50 डिग्री हिमांक से नीचे ठंडा रखा जाता है। टीका बनाने से लेकर गर्भाधान केन्द्र तक कब, कहां, कितनी बिजली, तरल नाइट्रोजन की उपलब्धता रही और इस कारण कितने शुक्राणु जीवित रह पाए, यह हमेशा एक संदिग्ध विषय रहता है। शासन तंत्र की मिलीभगत के चलते सरकारी संस्थानों में प्राय: मृतप्राय: शुक्राणुओं के टीके ही पाए जाते हैं। कृत्रिम गर्भाधान करने के लिए कुशल व संवेदनशील कर्मचारी भी चाहिए। सरकारी तंत्र में यह भी एक जटिल समस्या है। सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में कृत्रिम गर्भाधान योजना की यह कठिनाइयां हैं।

एक गौ का ऋतुकाल उसकी नस्ल, स्वास्थ्य, आहार व रख-रखाव पर निर्भर रहता है। देसी गाय एक दो दिन तक गर्म रहती है। अधिक दूध देने वाली संकर गायों का ऋतुकाल कुछ घंटों तक सिमित होता है। गाय कब गर्म है, इसका निर्णय करना प्राकृतिक नियमानुसार एक वृषभ का काम है। मनुष्य गोपालक गाय के ऋतुकाल का अनुमान ही लगा पाते हैं। देसी गाय में एक दो दिन के समय के कारण इतनी कठिनाई नहीं आती, जितनी अधिक दूध देने वाली संकर नस्ल की गायों में, जो केवल कुछ घंटों तक ही गर्म रहती हैं। इतने सीमित समय में कृत्रिम गर्भाधान व्यवस्था उपलब्ध कराना सामान्यत: कठिन होता है।

पाश्चात्य देशों में औसतन पचास प्रतिशत तक कृत्रिम गर्भाधान सफल माने जाते हैं। लेकिन यह देखा जा रहा है कि जिन गायों का कृत्रिम गर्भाधान किया गया उन में हर ब्यांत के बाद कृत्रिम गर्भाधान की सफलता कम होती जाती है। इसलिए प्राय: दो-तीन ब्यांत के बाद वहां गायों को मांस के लिए मार दिया जाता है।

भारत वर्ष में गौ के ऋतुमति होने के समय की ठीक पहचान की कमी, टीमों की प्रामाणिकता का अभाव, बिजली इत्यादि की अव्यवस्था, कुशल गर्भाधानरकत्ताओं की कमी इत्यादि के चलते, राष्ट्रीय योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार मात्र 30 प्रतिशत कृत्रिम गर्भाधान सफल होते हैं। परंतु वास्तविकता यह है कि भारत में कृत्रिम गर्भाधान की सफलता 20 प्रतिशत से अधिक नहीं है। कृत्रिम गर्भाधान की जितनी अधिक कोशिश की जाती है, गायों में बांझपन की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है।

बिना दूध की गौ का सूखा काल बढ़ने से किसान के लिए गौ आहार देना एक आर्थिक बोझ बन जाता है। सरकारी संस्थानों में उत्पादित गर्भाधान टीकों की प्रामाणिकता कम पाए जाने पर विदेशों से टीके आयात करने का रास्ता ढूंढा गया है। जबकि इससे विदेशों के पशुओं की आनुवांशिक भयानक बीमारियों के यहां फैलने का खतरा बढ़ जाता है। अनुचित लाभ कमाने के लालच से प्रेरित होकर यह भी देखा गया है कि कई बार अधिकारियों की मिलीभगत से विदेशों में बेकार घोषित किए जा चुके टीकों का भी आयात कर लिया जाता है। यह सब देखते हुए अब कृत्रिम गर्भाधान का दायित्व निजी क्षेत्र को दिए जाने की बात हो रही है। लेकिन ऐसा हुआ तो भी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं होने वाला है।

कृत्रिम गर्भाधान न केवल अप्रभावी एवं नुकसानदेह है बल्कि यह अत्यधिक खर्चीला भी है। सरकारी नीति के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में जहां 1000 तक गायें हो, वहां एक कृत्रिम गर्भाधान केन्द्र स्थापित करने की योजना है। प्रत्येक केन्द्र पर एक प्रशिक्षित कर्मचारी को आवास, यातायात के लिए मोटर साईकल, गर्भाधान टीके के भंडारण हेतु रेफ्रिजरेटर, टीका लगाने के यंत्र और अन्य कई चीजों के लिए प्राय: एक वर्ष में दो लाख रूपए का खर्च आता है। निजी संस्थाओं या व्यक्तियों द्वारा परिचालित केन्द्रों को यह पैसा सरकार द्वारा दिए जाने की व्यवस्था की जा रही है।

एक केंद्र का कर्मचारी मोटर साईकल पर तरल नाइट्रोजन के बर्तन में गर्भाधान टीके ग्रामवासियों के घर में उनकी गायों को उपलब्ध कराता है। साल में लगभग 250 दिन काम करके वह पांच सौ गायों का कृत्रिम गर्भाधान करने का प्रयास करता है। 30 प्रतिशत गर्भाधान की सफलता संतोषजनक मानी जाती है। यानी 500 में से मात्र 150 गाएं ही गर्भवती हो पाती हैं। बात यहीं खत्म नहीं होती। कृत्रिम गर्भाधान से जन्म लेने वाले लगभग 15-20 प्रतिशत बच्चे जल्दी ही मर जाते हैं। इस प्रकार दो लाख रूपए प्रति वर्ष खर्चे से सौ सवा सौ बच्चे ही मिल पाते हैं। 30 प्रतिशत सफलता के परिणाम स्वरूप हर गाय का सूखा काल दो-तीन महीने बढ़ जाता है। गरीब ग्राम वासी पर यह भी एक बोझ बनता है। फिर जो गाय हर बार, हर ब्यांत के लिए चार-पांच बार कृत्रिम गर्भाधान कराती है, उसका शरीर शिथिल हो जाता है और वह तीन-चार से अधिक बच्चे देने में असमर्थ हो जाती है। इसके बाद अधिकतर गायों को या तो कसाइयों को बेच दिया जाता है या उन्हें सड़कों पर छोड़ दिया जाता है, जहां वे असमय मर जाती हैं।

कृत्रिम गर्भाधान की इस अव्यावहारिक एवं अनैतिक व्यवस्था को छोड़ यदि सरकार प्राकृतिक गर्भाधान की व्यवस्था करे तो स्थिति में व्यापक सुधार हो सकता है। एक वृषभ से वर्ष में पचास से सत्तर बच्चे उत्पन्न हो सकते हैं। एक वृषभ के रखरखाव की अच्छी व्यवस्था करने में तीस-चालीस हजार रुपए का खर्चा आता है। दो लाख रूपए के खर्च पर पांच-छ: वृषभ 350 से 400 तक स्वस्थ बच्चे प्रदान कर सकते हैं। गाएं असमय बांझ नहीं होंगी। ठीक रख रखाव होने पर हर गाय आठ-दस बच्चे आसानी से देगी।

देश में स्वतन्त्रता से पूर्व हर 1000 भारतीयों पर 700 गायें थीं जो आज घटकर 100 रह गई हैं। अगर हम ऐसे ही चलते रहे तो हमें चाय पीने तक के लिए विदेशों से दूध आयात करना पड़ेगा, जैसा बांग्लादेश कर रहा है और पाकिस्तान भी उसी राह पर है। यह सब पाश्चात्य डेयरी उद्योग की सुनियोजित योजना के चलते हो रहा है। इसके लिए हमारे शासक वर्ग की अदूरदर्शिता और हमारे धर्माचार्यों की उदासीनता को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

आज आवश्यकता है कि देश की प्रत्येक गौशाला देश के कोने-कोने में भारतीय नस्ल के स्वस्थ वृषभ किसानों एवं सरकारी एजेंसियों को उपलब्ध कराए। हर ग्रामीण क्षेत्र में, हर मंदिर-देवालय में एक अच्छे वृषभ को रखने का अपना दायित्व निभाना हमारे धर्माचार्यों और गौशाला चलाने वालों का ध्येय बनाना चाहिए। तरफणों के लिए उन्नत पशुपालन एवं जैविक कृषि की शिक्षा का प्रबंध अनिवार्य रूप से होना चाहिए। अगर ऐसा किया गया तो किसानों को आत्महत्या नहीं करनी पड़ेगी। गौ ग्राम नहीं बचा तो ‘शाइनिंग इंडिया’ भी नहीं बचेगी और एक बार फिर हमें गुलामी का दंश भोगने के लिए मजबूर होना होगा।

-सुबोध कुमार

(लेखक मूलत: इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं और महर्षि दयानंद गोसंवर्धन केन्द्र, पटपड़गंज, दिल्ली के प्रबंधन में सक्रिय रूप से जुड़े हैं)



विश्व में सर्वश्रेष्ठ है भारतीय गोवंश

प्रागैतिहासिक भूविज्ञान के विद्वान हमें अवगत करा चुके हैं कि हमारी पृथ्वी में जीवनस्वरूपों के उद्भव व विकास क्रम के अंतर्गत गोवंश के आदिकालीन पूर्वज ‘औरक्स’ की जन्मस्थली (18 लाख वर्ष पूर्व) भारत है, जहां उसके प्रथम प्रतिनिधि ‘बास प्लैनिफ्रन्स’ ने 15 लाख वर्ष पूर्व अपना पहला कदम रखा था।

भारत में प्रारंभ हुई अपनी विकास यात्रा के दौरान अफ्रीका व यूरोप में फैल कर स्थापित होने में इसे 2-3 लाख वर्षों का समय लगा। इस लम्बी यात्रा के दौरान, अपने सुरक्षित विकास के लिए, इस जीव को भी प्रकृति द्वारा स्थापित विधान, ”एक विशिष्ट पर्यावरण परिवेश में योग्यतम की उत्तरजीविता और उनका समूल नाश, जो अपने चारों और फैले साधनों का सदुपयोग नहीं कर पाते हैं”, का अनुसरण करना पड़ा था। इस प्राकृतिक नियम के अंतर्गत यह पशु, इस यात्रा-पथ के स्थानीय पर्यावरण (विशिष्ट जलवायु और उपलब्ध खान-पान में भिन्नता) के अनुरूप अपने को ढालते रहने के क्रम में, अफ्रीका व यूरोप पहुंचने तक सर्वथा नवीन भौतिक स्वरूप धारण कर चुका था। अब केवल, उसकी आकृति भारतीय गोधन से मिलती जुलती रह गई थी। हालांकि स्तनपायी जीव होने के कारण यह दूध उत्पादन में सक्षम था।

आकृति की बात करें, तो हम पाते हैं कि भारत में नील गाय नामक पशु पाया जाता है, जो देखने में हमारी गाय के समान है। परंतु वैज्ञानिक विवेचना से ज्ञात होता है कि इसका गोवंश से कोई संबंध नहीं है और उसके पूर्वज हिरण कुल के हैं। यह है प्रकृति की माया, जिसके प्रभाव में विभिन्न-जीव बदलते पर्यावरण के समकक्ष स्वरूप धारण करने के प्रयास में, जटिल रूप धारण करते रहे हैं। आधुनिक मानव के विकास का इतिहास भी ऐसा ही है।

परंतु अफ्रीका व यूरोप में स्थापित होने के काल तक विश्व के अन्य महाद्वीपों (उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका, आस्ट्रेलिया) में गोधन का अस्तित्व ही नहीं था। 19वीं सदी में यूरोपवासी अपने अतिक्रमण अभियानों के दौरान अपना गोधन लेकर वहां पहुंचे थे। तभी से गोधन वहां उपलब्ध हो सका।

कालांतर में जलवायु, पर्यावरण एवं पशुपालन विधियों में भिन्नता होने के कारण विभिन्न गौ-प्रजातियों के गुणों में भारी अंतर स्थापित हो चुका है, विशेषकर भारतीय व विदेशी गोधन के मध्य। दूध देने के साथ-साथ भारतीय गौ-प्रजातियों में ऐसे असंख्य गुण हैं जिनकी विदेशी प्रजातियों में कल्पना भी नहीं की जा सकती। वास्तविकता यह है कि आधुनिक जर्सी/आस्ट्रियन/फ्रिजियन/होलस्टीन आदि विदेशी-काऊ प्रजातियां, मानव द्वारा विकसित जिनेटिकली इंजीनियर्ड परिवार की सदस्य हैं, जिन्हे अधिक दूध व मांस उत्पादन के लिए विकसित किया गया है। विश्व के शीतोष्ण प्रदेशों में इनका विकास हुआ है। इसलिए ये गर्मी सहन नहीं कर सकती हैं। उन्हें ठंडा वातावरण ही भाता है। उनका खान-पान व रख-रखाव का तरीका भी भिन्न है। इनमें रोग-निरोधक शक्ति का भी अभाव है। इनका रूप व आदतें सिद्ध करती हैं कि हल व बैलगाड़ी चलाने में इनकी उपयोगिता नहीं है और इनके पंचगव्य में भारतीय गोधन के समान उच्चस्तरीय जैव-प्रजनन व उपचार गुण भी नहीं है।

इसके विपरीत भारतीय गोधन अपनी जन्मस्थली के जैव-समृद्ध प्रदेशों में लाखों वर्षों से जीवन-यापन करते हुए विकासरत रहा है। गर्मी के मौसम में कितनी भी कड़कती धूप क्यों न हो, वह मुंह नीचा कर छोटे पेड़ों-झाड़ियों की छांव में भी शान्त खड़ा व बैठा रहता है। कारण-उसमें भारतीय जलवायु अनुरूप व्यवहार प्राकृतिक रूप से उसमें समाहित हो चुके हैं। भारतीय गोधन, एक जैव-समृद्ध देश में विकासरत रहने के दौरान, आरंभ से ही जंगलों व चट्टानी इलाकों में नाना प्रकार की जड़ी-बूटियां व काष्ठीय वनस्पतियां खाता आया है। फलस्वरूप उसके भौतिक स्वरूप व पंचगव्य में उच्चस्तरीय गुण प्राकृतिक रूप में स्थापित हैं।

आधुनिक विज्ञान भी इस निष्कर्ष पर पहुंचने लगा है कि स्थानीय जलवायु, मृदा रसायन व आहार इस प्रकार के अंतर स्थापित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए डीएनए परीक्षणों द्वारा कार्बन और नाइट्रोजन अनुपात निर्धारण कर वैज्ञानिक बताने लगे हैं कि सफेद गैंडा घास-पात और काला भारतीय गैंडा जड़ी-बूटी व काष्ठीय वनस्पति खाता आया है।

हमारे विद्वान पूर्वजों ने इस पृथ्वी में व्याप्त पारिस्थितिकीय-विधान का वैज्ञानिक अंतररहस्य ज्ञात कर सामाजिक व्यवस्था को निरंतर गतिशील बनाए रखने के लिए कई सरल-व्यवहार योग्य परंपराएं स्थापित की थीं। उद्देश्य था कि आगे आने वाली मानव पीढ़ियां भी उनके वैज्ञानिक ज्ञान का लाभ उठाते हुए स्वविकास की ओर कदम बढ़ाती रहें। इस प्रकार की वैज्ञानिक सोच के अंतर्गत, उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी होगी कि इस पृथ्वी में सकुशल जीवन यापन के लिए स्वच्छ हवा व पानी के साथ-साथ भोजन ग्रहण कर ऊर्जा प्राप्त करते रहना सभी जीवनस्वरूपों की नियति है। इसलिए उन्होंने, इन भौतिक अनिवार्यताओं को प्राकृतिक रूप में यथावत बनाए रखने को सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान की थी। उनके द्वारा प्रतिपादित सभी आचरण, नियम-परंपराओं में यह वैज्ञानिक झलक स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है।

इस प्रकार के शोध कर्म के अंतर्गत जब उन्हें भारतीय गोवंश में प्राकृतिक रूप से समाए चमत्कारिक जैव-प्रजनन/उपचारिक गुणों का ज्ञान हुआ, तब उन्होंने इस जीव को ‘गोधन’ की संज्ञा प्रदान करते हुए उसे ‘गोमाता’ का प्रतिष्ठित आसन प्रदान कर, उसे ‘अघन्या’ (न मारने योग्य जीव) मानने की परंपरा स्थापित कर उसके स्थायी संरक्षण की सामाजिक व्यवस्था विकसित की।

इसके ऐतिहासिक दस्तावेज मिलते हैं कि भारत में मुगल शासन के दौरान गोहत्या निषेध एक सशक्त कानून के रूप में लागू था। इसका कारण है कि मुसलमान लोग मांसाहारी थे व उन्हें गोमांस खाने में भी कोई दुविधा नहीं थी। भारत में आकर बसने पर मुसलमानों को भारतीय कृषि समृद्धता में हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित गोधन आधारित प्रौद्योगिकी (जैव कृषि व औषध) का ज्ञान होने लगा और वे अपने आर्थिक विकास के लिए उसे गम्भीरता से अपनाने भी लगे। सभी मुगल शासक जान चुके थे कि भारतीय जलवायु के अंतर्गत गोवंश, आर्थिक समृद्धता प्रदान करने वाला सबसे सशक्त, स्वदेशी जैव-ऊर्जा स्रोत है, चाहे वह नागरिकों के स्वास्थ्य संरक्षण का प्रश्न हो, या भोजन के लिए अनिवार्य अन्न/फल/सब्जी उत्पादन वृध्दि की बात हो, अथवा नागरिकों की आर्थिक समृध्दता गतिमान रहने पर सरकार को नियमित राजस्व मिलते रहने का प्रश्न ही क्यों न हो।

इस प्रकार के ऐतिहासिक परिदृश्य में यह मानना न्याय-संगत प्रतीत होता है कि औरंगजेब के शासनकाल तक (मृत्यु 1707) भारत में गोमांस खाना बहुत सीमित था। इसके पश्चात भारत में मुगल बादशाहों की पकड़ कमजोर होती चली गई और इसका लाभ उठाते हुए यूरोप से व्यापार करने आए अंग्रेजों ने धीरे-धीरे कर हमारे देश में अपना शासन स्थापित कर लिया। भारत में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए अंग्रेजों ने बड़ी चतुराई से हिन्दुओं व मुसलमानों के मध्य स्थायी वैमनस्य निर्माण के लिए ‘भारतीय-गोधन’ को ब्रह्मास्त्र के रूप में उपयोग किया। उनके दुष्प्रचार के कारण गाय को मात्र हिन्दुओं का प्रतीक माना जाने लगा और वह राजनीति का मोहरा बन गई।

इतना ही नहीं, वर्ष 1835 में लार्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा क्षेत्र में अंग्रेजी भाषा को आगे बढ़ाया। इसके प्रभाव में हम भारतवासी अपनी संस्कृत-भाषा से विमुख होते चले गए, जो हमारे महान प्राचीन ग्रंथों की भाषा है। इस शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत हम भारतीवासी यह जानते ही नहीं कि हमारे स्वर्णिम प्राचीन इतिहास के पीछे हमारे पूर्वजों द्वारा उच्चस्तरीय वैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुरूप विकसित जैव-प्रौद्योगिकी का हाथ रहा है। ये सभी अनुभवजन्य व भारतीय जलवायु में कारगर व प्रमाणित विधियां हैं। जागृत विज्ञान आधारित होने के कारण हम इन्हें वर्तमान में भी अपनाकर विश्व में उभरते जैव-प्रौद्योगिकी युग में असाधारण आर्थिक लाभ कमा सकते हैं।

इसलिए हम भारतवासियों को यह समझना आवश्यक है कि हमारे देश में गोहत्या निषेध की परंपरा प्रकृति के आशीर्वाद से भारत में उपलब्ध, एक पर्यावरण संगत व आधारभूत जैव ऊर्जा स्रोत को सरंक्षण प्रदान करने के सामाजिक आचरण से उभरी आर्थिक व्यवस्था का आदर्श स्वरूप है। इसी विशिष्ट जीव के भौतिक स्वरूप और पंचगव्य (गोबर, गोमूत्र, दूध, दही, घी) में समाए जैव-समृद्ध गुणों की वैज्ञानिक व्याख्या व उस पर आधारित प्रौद्योगिकी विकास कर हमारे पूर्वजों ने भारत को ‘सोने की चिड़िया’ जैसी प्रतिष्ठा दिलवाई थी।

परंतु भारत में शासन करने के लिए अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई कूटनीति से प्रभावित होकर भारतीय आचार-व्यवहार शनै: शनै: परिवर्तित होता चला गया। एक ओर भारतीय मुसलमानों ने निर्भय हो कर गोमांस सेवन करना आरंभ कर दिया, तो दूसरी ओर हम भारतवासियों ने गोवंश के रख-रखाव की ओर समुचित ध्यान देना छोड़ दिया। वर्तमान स्थिति यह है कि विदेशी काऊ के मुकाबले हमारी भारतीय गाय की दूध उत्पादन क्षमता बहुत कम हो गई है; इतनी कम कि आज भारत में स्वदेशी गोधन के पालन-पोषण को घाटे का सौदा समझा जाता है। इस सोच के प्रभाव में भारतीय योजनाविदों ने भारतीय नस्ल के गोधन को एक समस्या के रूप में ही पहचाना है व उसके सदुपयोग के विषय में सोचा ही नहीं, योजना बनाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

यद्यपि अधिकतर भारतीय गायों का दूध उत्पादन तुलनात्मक रूप से कम है, लेकिन उनके गोबर-गोमूत्र में आज भी उच्चस्तरीय जैव-प्रजनन/उपचारिक गुण प्राकृतिक रूप में समाए हुए हैं। अमेरिका जैसा समृद्ध देश भी अब भारतीय गोवंश के पंचगव्य में विद्यमान उत्कृष्ट जैविक-गुणों का महत्व समझते हुए, भारत से जैव-वर्मीकम्पोस्ट/ पेस्टिसाइड निर्यात के विषय में गंभीरता से सोचने लगा है।

पिछले दो दशकों से कई भारतीय स्वयंसेवी संस्थाओं ने जैव-कृषि क्षेत्र में प्राचीन भारतीय पद्धतियों को व्यावहारिक रूप में अपनाकर, सफल आर्थिक प्रदर्शन आरंभ कर दिया है। इन प्रयासों से एक व्यावहारिक मान्यता उभरी है कि भारतीय जलवायु के अंतर्गत एक स्वदेशी गोधन का गोबर-गोमूत्र एक हेक्टेयर भूमि में कृषि के लिए पर्याप्त है। दूसरी ओर यह मान्यता पुन: स्थापित हुई है कि एक बंजर-भूमि को गोपालन द्वारा 2/3 वर्षों में उपजाऊ बनाया जा सकता है। इस प्रकार विवेचना से ज्ञात होता है कि भारत में कुल कृषि योग्य भूमि 14.2 करोड़ हेक्टेयर है और गोधन की संख्या 19.8 करोड़ है अर्थात भारतीय कृषि भूमि की जैव-खाद/कीटनाशक आवश्यकता से कहीं अधिक गोधन हमारे पास है। इस क्षमता का सदुपयोग कर, भारत न केवल अपने यहां कृषि को एक नई ऊंचाई दे सकता है बल्कि निर्यात द्वारा विश्व में उभरते जैव-प्रौद्योगिकी व्यापार में प्रमुख भूमिका भी निभा सकता है।

इसके अलावा, अब तो भारत में पंचगव्य के उपयोग से फिनायल, अन्न सुरक्षा टिकिया, मच्छर निरोधक क्वायल, बर्तन मांजने का पाउडर, डिस्टेम्पर, फेस पैक (उबटन), साबुन, सैम्पू, तेल, धूप बत्ती, दंत मंजन आदि कई चीजों का निर्माण व्यावसायिक स्तर पर किया जा रहा है। जैव उत्पाद होने के कारण, इनकी मांग विदेशों में भी बढ़ने लगी है। इतना ही नहीं, स्वदेशी गोधन में विद्यमान भार-वहन क्षमता का उपयोग कर बैल-चालित ट्रैक्टर/सिंचाई व पंपिंग मशीन/बैट्री चार्जर जैसे उपयोगी यंत्रों का विकास भी भारत में हो चुका है और इन्हें व्यावहारिक रूप में सफलतापूर्वक उपयोग भी किया जा रहा है।

परंतु दुर्भाग्यवश हम आज भी अंग्रेजी सोच से ग्रसित हैं। इस मानसिकता के कारण, हमारे गोवंश में विद्यमान जनोपयोगी गुणों का प्रचार-प्रसार भारत में नहीं हो पाया है। इसलिए इस विषय के जानकार भारतीयों को राष्ट्र-धर्म के रूप में गोमाता के सदगुणों का प्रचार-प्रसार करना होगा, वह भी अपनी-अपनी मातृभाषा में, जैसाकि हमारे पूर्वजों ने किया था। इस विषय को प्रचार-प्रसार मिलने पर, भारत में सर्वत्र कुटीर उद्योग का जाल फैल जाएगा, क्योंकि भारत में 70 प्रतिशत गोधन के मालिक गरीब किसान हैं। भारतीय किसानों के मध्य इस प्रकार का ज्ञान, एक ऐसी हरित-क्रांति को जन्म देगा, जो सार्थक एवं टिकाऊ होगी।

-शिवेन्द्र कुमार पाण्डे
(लेखक एक भूवैज्ञानिक एवं कोल इंडिया लि. के सेवानिवृत्त मुख्य महाप्रबंधक (गवेषणा) हैं।)


गोवंश संवर्धन से बचेगी देश की संस्कृति

गाय को लेकर हमारे समाज में एक बड़ा विरोधाभास है। एक ओर हम गाय को माता का स्थान देते हैं। हमारी श्रद्धा हमारे प्रत्येक कर्म के साथ दिखाई पड़ती है। खाना प्रारम्भ करने से पहले गो-ग्रास निकाल कर अलग रख दिया जाता है।प्राचीन भारतीय परम्परा और गोमाता- 

गाय में 33 करोड़ देवताओं के वास की बात कही गयी है। गाय के दूध, दही, घी आदि से शरीर पुष्ट होता है। मूत्र में औषधीय गुण है। गोबर कृषि के लिए खाद देता है और इसी गोवंश के बैल से खेती होती है। इस प्रकार स्वावलम्बी जीवन यापन की पूरी श्रंखला गाय के साथ जुड़ी हुई है। भगवान कृष्ण के साथ गोपाल, गोविन्द नाम उनकी गायभक्ति के कारण जुड़ा हुआ है। भगवान राम के पूर्वज राजा दिलीप ने तो स्वयं वन में जाकर गाय की सेवा की है। वास्तव में गाय के गुणों के कारण ही उसे हमारी परम्परा में माता का स्थान दिया गया है। आज भी उस श्रद्धा के कारण हिन्दू समाज इसे पूज्यनीय मानता है।

लेकिन एक दूसरा चित्र भी है। आज भी हिन्दू समाज में वह परम्परागत श्रद्धा बनी हुई है। परन्तु योजनाबद्ध षड़यंत्र के कारण हमारी दिनचर्या, जीवनशैली में धीरे-धीरे ऐसा बदलाव कर दिया गया है कि हम धीरे धीरे उस माता से दूर हो गए है और आज भी दूर जा रहे है।

आधुनिक जीवनशैली और गोसेवा-
आज नगरों की ऐसी आवास-व्यवस्था बन गई है कि कोई चाह कर भी गाय नहीं रख सकता। बहुमंजिली इमारतों में व्यक्ति की सुख-सुविधाओं की हर छोटी-छोटी बात का ध्यान रखा जाता है। कारों के लिए अलग से गैरज का प्रबन्ध है परन्तु गाय पालना संभव नहीं है। महानगरों में तो यह बिल्कुल भी संभव नहीं है। कितनी ही आप के मन में श्रद्धा हो कि आप अपने हाथों से गाय की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करें। यह आज के परिवेश में संभव नहीं है। 

जब आप गाय पालन कर ही नहीं सकते तो उसके गुणों की अनुभूति आपको कैसे होगी। कैसे आप जानेंगे कि उसके दूध में कैसी दैवीय शक्ति है। उसके दूध से कैसा स्वास्थ्य लाभ होता है, कितनी बुद्धि प्रखर होती है यह आप कैसे अनुभव कर पायेंगे। इस प्रकार धीरे-धीरे हमारे आवास का कल्चर बदल जाने के कारण हम गाय से दूर होते गए।

सामाजिक भ्रांतियां और गाय-
हमारी श्रद्धा को समाप्त करने के लिए शास्त्रों की व्याख्या में ऐसी शिक्षा दी गई कि वैदिक काल में भी हमारे पूर्वज गाय माँस खाते थें। सब से बड़ा अन्याय यही से प्रारम्भ हुआ। कुछ सूत्रों की व्याख्या को ऐसा तोड़ा मरोड़ा गया तथा उन्हें इतना महत्व दिया गया कि अन्य हजारों जगह जो गाय की स्तुति की गई उसकी उपेक्षा कर दी गई। गाय के प्रति श्रद्धा को कम करने का यह एक नियोजित शड़यंत्र था।

दूसरा भ्रम पैदा किया गया कि गाय और भैस के दूध की तूलना का। दूध की गुणवत्ता का पैमाना चिकनाई को प्रचारित किया गया। गाय का दूध पतला होता है और भैंस के दूध से घी, मावा, पनीर, अधिक मिलता है। इसलिए गाय के दूध की कीमत कम आंकी गई और भैंस का दूध मंहगा बिकने लगा। जबकि आज तो चिकनाई को मेडिकल की दृष्टि से शरीर के लिए हानिकारक माना जाने लगा है और दूध के स्थान पर टोन्ड मिल्क अर्थात चिकनाई रहित दूध का प्रचलन सरकारी, गैर-सरकारी डेरियों में होने लगा है।

यह लोग भूल गये कि गाय का दूध पीने से बुद्धि प्रखर होती हैं। शरीर में आलस्य और प्रमाद के स्थान पर चेतनता आती हैं। इसका स्पष्ट उदाहण गाय के बछडे और भैंस के पड़वे की चेतनता को देखकर लगाया जा सकता है। गाय के बछड़े को उछलते, कुलांचे भरते देखा जा सकता है जबकि भैंस का बच्चा एकदम मरियल सा सोया पड़ा रहता है। आज कई गोभक्त वैज्ञानिकों ने इस दृष्टि से अनुसंधान करके सिद्ध कर दिया है कि गाय का दूध ही मनुष्य के शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए अधिक उपयुक्त है।

गाय के दूध को भैंस के दूध की तूलना से कम मूल्य व कम शक्तिशाली बताने का भ्रम पैदा करके गाय को समाज से दूर करने का षड़यत्र रचा गया है। शहर में हर व्यक्ति अपनी गाय तो रख नहीं सकता। वह डेयरी में दूध लेने जाता है डेयरी वालों को भैंस पालने में लाभ होता है क्योंकि भैंस अधिक दूध देती है और भैंस का दूध चिकनाई के पैमाने के हिसाब से मंहगा बिकता है। इसलिए डेयरी वाला भैस ही पालता है। उसके पास दस भैंस है तो एक दो गाय है। क्योंकि गाय के दूध को केवल बीमार या छोटे बच्चों के लिए ही उपयुक्त माना जाता है और सामान्य उपयोग में भैंस के दूध को ही दूध बताया गया है। इस प्रकार भैस की स्पर्धा मे गाय के दूध को एक षडयन्त्र के नाते केवल चिकनाई को पैमाना बनाकर हीन बना दिया गया है।

उत्तर भारत में तो भैंस से स्पर्धा हुई परन्तु दक्षिण में और शेष भारत में गाय ही अधिक थी। गाय भैंस से दूध मे भले ही पिछड़ गई परन्तु गाय के बछड़े बैल बनकर अच्छे दाम पर बिक जाते हैं इसलिए गांव में गोपालन उत्तर भारत में कम दूध होने पर भी चालू रहा। बछड़ा ब्याहने पर गाय का मूल्य केवल बछड़े के कारण दुगना तक हो जाता था।

गोपालन और गांव का विकास-
गांव में गोपालन पर मार पड़ी ट्रैक्टर के आने से। ट्रैक्टर आ गए तो बैल अनुपयोगी दिखने लगे। बैल पालने और दिन रात उनके चारे के लिए प्रबन्ध करते रहो, इस झंझट से मुक्ति पाने के लिए बड़े किसानों ने अपने ट्रैक्टर खरीद लिए और छोटे किसान ट्रैक्टर वाले से किराये पर खेत जुतवाने लगे। इस ट्रैक्टर के आगमन ने गांव के पूरे कार्यचक्र को तोड़ दिया। गाय थी बैल थे तो गाँव में रोजगार था। बढ़ई लोहार, चर्मकार, चरवाहा सभी किसान के हल के साथ जुड़े हुए थे।

बढ़ई हल बनाता था, बैलगाड़ी बनाता था। लोहार हल के आगे का फल बनाता था, चर्मकार मरे हुए जानवरों के चमड़े से जूते बनाता था। चरवाहा जानवरों को पास के जंगल मे चराने के लिए ले जाता था। परन्तु अब तो किसान खुद ही बेकार हो गया है। खेती में अब तो केवल फसल बोते समय ही अधिक काम होता है और शेष समय तो घर-परिवार के लोग ही खाली हो गये। इस प्रकार गोवंश का गांव से निष्कासन होने के साथ-साथ जनता का भी गांव से शहर की ओर रोजगार के लिए पलायन शुरू हो गया है।

ट्रैक्टर की खेती से एक ओर तो बेरोजगारी फैली दूसरे पशुओं के न रहने से खाद की कमी महसूस की जाने लगी है। खाद के लिए सरकार ने यूरिया आदि रासायनिक खादों के उपयोग की सिफारिश की। शुरू मे रासायनिक खादों से जमीन की फसल मे आशातीत वृद्धि हुई। तत्कालिक लाभ ने पुराने सिस्टम को तोड़ने में सहायता दी।

गोपालन में कमी के दुष्परिणाम-
कुछ ही वर्षों बाद इसके दुष्परिणाम भी प्रारम्भ हुए। ट्रैक्टर की जुताई से ट्रैक्टर के पहिये के बोझ से जमीन में पलने वाले केचुआ आदि शनै: शनै: मरने लगे। उधर यूरिया आदि गरम खादों के कारण भी लाभकारी जीवाणु मरने लगे और रासायनिक खादों के कारण भी हानिकारक जीवाणु खेती की फसल को नुकसान पहुंचाने लगे। इससे फसल के पकने से पूर्व ही कीड़ा लग जाता है। इसे रोकने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। फसल जैसे ही पकने के लिए तैयार हो, उस पर कीटनाशक का छिड़काव किया जाने लगा।

पहले खेत में गोबर की खाद पड़ती थी उसमें एक ओर तो धरती की उर्वराशक्ति कायम रहती थी। दूसरे उसमें प्राकृतिक रूप् से कीटों से बचाव की अदृभुत क्षमता थी। अब कीटनाशकों के प्रयोग से फसल को कीटों से तो बचाया गया परन्तु फसल के उत्पाद पर जो कीटनाशक रसायनों का प्रभाव हुआ वह अधिक नुकसानदायक साबित होने लगा।

आज उन उत्पादों- टमाटर, बैगन आदि को खाने वालों को उन रसायनों के दुष्प्रभाव से बचाना कठिन हो रहा है। आज से तीस चालिस वर्ष पूर्व किसी गांव में आपको शायद ही कोई रक्तचाप, हृदय रोग या कैंसर का रोगी मिल जाए। आज शहरों के साथ गांव में भी इस प्रकार की जानलेवा बीमारियों के रोगी मिल सकते हैं। विचारकों का कहना है यह खेती पर छिड़काव किए जाने वाले कीटनाशकों के जहर का प्रभाव है। मानव के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों तथा धरती की उर्वराशक्ति के निरन्तर कम होने के कारण अब समाज में आर्गेनिक खेती की मांग उठने लगी है। आर्गेनिक खेती अर्थात गोबर आदि प्राकृतिक खाद से होने वाली खेती, जिसमें रासायनिक खादें तथा कीटनाशकों का प्रयोग न किया गया हो।

इस प्रकार गाय के बिना खेती से किस प्रकार तबाही हो रही है, यह परिणाम ही बता रहे हैं। लाखों करोड़ की सबसिडी पहले सरकार रासायनिक खाद कम्पनियों को देती है उसके बाद भी किसान को खेती इतनी मंहगी हो गई है कि वह उससे भरपेट भोजन नहीं प्राप्त कर पाता। वह निरन्तर कर्ज के बोझ तले दबता जा रहा है। सरकार समय समय पर कर्ज माफ भी करती है परन्तु फिर भी उसे अपनी आर्थिक मजबूरियों के कारण आत्महत्या करनी पड़ती है। अब तो किसानों की आत्महत्या इतनी आम हो गयी है कि वह खबर भी नहीं बनती।

इस तरह एक गाय के कृषि चक्र से बाहर हो जाने पर न केवल धरती बंजर हो रही है। मानव के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया है, मानव के स्वास्थ्य और सुख शान्ति पर गंभीर संकट आ गया है। इसलिए आज पुन: गाय की महत्ता की बात लोगों को समझ में आने लगी है। गोग्राम यात्रा का इसीलिए गावों में अधिक स्वागत हो रहा है।

गाय की उपयोगिता आर्थिक दृष्टि से कम करने में जर्सी गाय ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जर्सी गाय अधिक दूध देती है, देसी गाय कम दूध देती है, इस तुलना में देसी गाय की अपेक्षा जर्सी गाय के दूध को व्यवसाय की दृष्टि से लाभप्रद बताया गया। इस कारण भी भारत की गाय को पालने में ग्वाले पीछे हट गये यद्यपि जर्सी गाय का बैल खेती के लिए उपयोगी नहीं होता। लेकिन डेरी फार्म का व्यवसाय करने वालों को देसी गाय की अपेक्षा जर्सी गाय अधिक प्रिय रहीं।

लेकिन आज वैज्ञानिक शोधों ने सिद्ध किया है कि स्वास्थ्य और औषधीय दृष्टि से जो तत्व देसी गाय के दूध में हैं उससे बहुत कम मात्रा में जर्सी गाय में है, इसलिए अब तो जर्सी गाय को भारत की गाय कहने में ही संकोच होता है। गो-मूत्र की दृष्टि से भी जर्सी उपयोगी नहीं ठहरती। गो-मूत्र में जो कैंसर तक को ठीक करने के औषधीय गुण है, वह जर्सी गाय के मूत्र में नहीं है।

गो ग्राम यात्रा और गाय की उपयोगिता-
जैसे ठोकर लगने पर ही व्यक्ति सीखता है। वैसे ही गाय की उपेक्षा से जो पूरे समाज का स्वस्थ्य-चक्र बिगड़ा उसने भी पुन: गाय की ओर लौटने के लिए समाज को प्रेरित किया है। ऐसे समय पर गो-ग्राम यात्रा ने समाज में व्याप्त कुण्ठा को समाप्त कर उसे पुन: गाय की ओर लौटने के लिए एक एक मंच प्रस्तुत किया है। यह यात्रा वास्तव में समाज में व्याप्त असमंजस की स्थिति से निकलने का एक मार्ग सुझाती है। जैसे स्वामी रामदेवजी का योग चार पांच वर्षों में प्रचारित हो गया उसका एक कारण यह भी है कि लोग ऐलोपैथी की दवाएं खाकर हताश और निराश हो चुके थे उन्हें रामदेवजी के योग में एक आशा की किरण दिखाई दी और लोग उनके पीछे एकजुट होने लगे। 

अब इसमें दो मत नहीं है कि गाय की उपयोगिता को जानकर लोग गोपालन में रुचि लेंगे। जितना अधिक प्रचार गाय की उपयोगिता को तर्क के साथ समझाने की कोशिश की जाएगी। उतना ही लोग गाय के प्रति उन्मुख होंगे। नगरों में गाय का दूध उपलब्ध हो इसकी व्यवस्था सरकारी या गैर-सरकारी स्तर पर की जानी चाहिए। यदि व्यवस्था हो और लोगों को गाय के दूध की उपयोगिता का सही ज्ञान कराया जाए तो लोग भैंस के दूध से अधिक दाम देकर गाय का दूध लेना चाहेंगे।

आज मुख्य प्रश्न दूध की उपलब्धता का है। गाय लोग घर पाल सकें इसके लिए गाय की मण्डी उपलब्ध हो जहां से गाय खरीदी जा सके। आज उत्साह में कोई गाय पालना भी चाहे तो उसे गाय मिलती नहीं। इन कामों की व्यवस्था की गई तो लोगों की गाय में रुचि उत्पन्न होने लगेगी। अन्यथा गो ग्राम यात्रा केवल आन्दोलन का रूप लेकर समाप्त हो जाएगी।

गाय और भैस के दूध की तूलना की प्रयोगशाला की रिपोर्टों को सार्वजनिक किया जाना चाहिये। देसी गाय और जर्सी गाय की गुणवत्ता के भी अन्तर को शोधों के आधार पर प्रचारित किया जाना चाहिए। गाँव की दृष्टि से आर्गेनिक खेती के लिए वातावरण बना है परन्तु जो किसान गोबर की खाद से खेती करे उसके कारण आरम्भ में भी कम उपज होगी उसकी भरपाई के लिए उसकी उपज के विक्रय की भी व्यवस्था होनी चाहिये।

यदि इस प्रकार के व्यावहारिक बिन्दुओं को सोचकर कदम उठाए जाएंगे तो गाय का दूध अपनी स्वयं की शक्ति से स्वत: ही समाज में अपना स्थान बना लेगा। गाय यदि उपयोगी हो जाएगी तो वह किसी भी कारण से कत्लखाने तक नहीं पहुँचेगी। गोमूत्र के ऊपर जो अनुसंधान हुए हैं उससे लोगों में गोमूत्र के बारे में उत्सुकता जागृत हो गयी है। अब गोमूत्र बिकने लगा है। यदि उसकी पूरी व्यवस्था हो जाय तो गोसदन एव गोशालाएं आत्मनिर्भंर हो जाएगी, उन्हें दान की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। गाय की उपयोगिता को तर्कों के आधार पर लोगों में प्रचारित किया जाए और उन्हें दूध प्राप्त करने के लिए व्यवहारिक सुविधा प्रदान की जाए। गाय स्वयं ही बच जाएगी। गौ के तेज में बहुत शक्ति है। वह समय आ गया है जब गाय अपना वर्चस्व प्रसारित करेगी और पुन: सच्चे अर्थों में माँ का स्थान प्राप्त कर लेगी।

प्रस्तुति- वीएचवी ब्यूरो/4 जनवरी 2010