Saturday, August 21, 2010

गोवंश संवर्धन से बचेगी देश की संस्कृति

गाय को लेकर हमारे समाज में एक बड़ा विरोधाभास है। एक ओर हम गाय को माता का स्थान देते हैं। हमारी श्रद्धा हमारे प्रत्येक कर्म के साथ दिखाई पड़ती है। खाना प्रारम्भ करने से पहले गो-ग्रास निकाल कर अलग रख दिया जाता है।प्राचीन भारतीय परम्परा और गोमाता- 

गाय में 33 करोड़ देवताओं के वास की बात कही गयी है। गाय के दूध, दही, घी आदि से शरीर पुष्ट होता है। मूत्र में औषधीय गुण है। गोबर कृषि के लिए खाद देता है और इसी गोवंश के बैल से खेती होती है। इस प्रकार स्वावलम्बी जीवन यापन की पूरी श्रंखला गाय के साथ जुड़ी हुई है। भगवान कृष्ण के साथ गोपाल, गोविन्द नाम उनकी गायभक्ति के कारण जुड़ा हुआ है। भगवान राम के पूर्वज राजा दिलीप ने तो स्वयं वन में जाकर गाय की सेवा की है। वास्तव में गाय के गुणों के कारण ही उसे हमारी परम्परा में माता का स्थान दिया गया है। आज भी उस श्रद्धा के कारण हिन्दू समाज इसे पूज्यनीय मानता है।

लेकिन एक दूसरा चित्र भी है। आज भी हिन्दू समाज में वह परम्परागत श्रद्धा बनी हुई है। परन्तु योजनाबद्ध षड़यंत्र के कारण हमारी दिनचर्या, जीवनशैली में धीरे-धीरे ऐसा बदलाव कर दिया गया है कि हम धीरे धीरे उस माता से दूर हो गए है और आज भी दूर जा रहे है।

आधुनिक जीवनशैली और गोसेवा-
आज नगरों की ऐसी आवास-व्यवस्था बन गई है कि कोई चाह कर भी गाय नहीं रख सकता। बहुमंजिली इमारतों में व्यक्ति की सुख-सुविधाओं की हर छोटी-छोटी बात का ध्यान रखा जाता है। कारों के लिए अलग से गैरज का प्रबन्ध है परन्तु गाय पालना संभव नहीं है। महानगरों में तो यह बिल्कुल भी संभव नहीं है। कितनी ही आप के मन में श्रद्धा हो कि आप अपने हाथों से गाय की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त करें। यह आज के परिवेश में संभव नहीं है। 

जब आप गाय पालन कर ही नहीं सकते तो उसके गुणों की अनुभूति आपको कैसे होगी। कैसे आप जानेंगे कि उसके दूध में कैसी दैवीय शक्ति है। उसके दूध से कैसा स्वास्थ्य लाभ होता है, कितनी बुद्धि प्रखर होती है यह आप कैसे अनुभव कर पायेंगे। इस प्रकार धीरे-धीरे हमारे आवास का कल्चर बदल जाने के कारण हम गाय से दूर होते गए।

सामाजिक भ्रांतियां और गाय-
हमारी श्रद्धा को समाप्त करने के लिए शास्त्रों की व्याख्या में ऐसी शिक्षा दी गई कि वैदिक काल में भी हमारे पूर्वज गाय माँस खाते थें। सब से बड़ा अन्याय यही से प्रारम्भ हुआ। कुछ सूत्रों की व्याख्या को ऐसा तोड़ा मरोड़ा गया तथा उन्हें इतना महत्व दिया गया कि अन्य हजारों जगह जो गाय की स्तुति की गई उसकी उपेक्षा कर दी गई। गाय के प्रति श्रद्धा को कम करने का यह एक नियोजित शड़यंत्र था।

दूसरा भ्रम पैदा किया गया कि गाय और भैस के दूध की तूलना का। दूध की गुणवत्ता का पैमाना चिकनाई को प्रचारित किया गया। गाय का दूध पतला होता है और भैंस के दूध से घी, मावा, पनीर, अधिक मिलता है। इसलिए गाय के दूध की कीमत कम आंकी गई और भैंस का दूध मंहगा बिकने लगा। जबकि आज तो चिकनाई को मेडिकल की दृष्टि से शरीर के लिए हानिकारक माना जाने लगा है और दूध के स्थान पर टोन्ड मिल्क अर्थात चिकनाई रहित दूध का प्रचलन सरकारी, गैर-सरकारी डेरियों में होने लगा है।

यह लोग भूल गये कि गाय का दूध पीने से बुद्धि प्रखर होती हैं। शरीर में आलस्य और प्रमाद के स्थान पर चेतनता आती हैं। इसका स्पष्ट उदाहण गाय के बछडे और भैंस के पड़वे की चेतनता को देखकर लगाया जा सकता है। गाय के बछड़े को उछलते, कुलांचे भरते देखा जा सकता है जबकि भैंस का बच्चा एकदम मरियल सा सोया पड़ा रहता है। आज कई गोभक्त वैज्ञानिकों ने इस दृष्टि से अनुसंधान करके सिद्ध कर दिया है कि गाय का दूध ही मनुष्य के शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए अधिक उपयुक्त है।

गाय के दूध को भैंस के दूध की तूलना से कम मूल्य व कम शक्तिशाली बताने का भ्रम पैदा करके गाय को समाज से दूर करने का षड़यत्र रचा गया है। शहर में हर व्यक्ति अपनी गाय तो रख नहीं सकता। वह डेयरी में दूध लेने जाता है डेयरी वालों को भैंस पालने में लाभ होता है क्योंकि भैंस अधिक दूध देती है और भैंस का दूध चिकनाई के पैमाने के हिसाब से मंहगा बिकता है। इसलिए डेयरी वाला भैस ही पालता है। उसके पास दस भैंस है तो एक दो गाय है। क्योंकि गाय के दूध को केवल बीमार या छोटे बच्चों के लिए ही उपयुक्त माना जाता है और सामान्य उपयोग में भैंस के दूध को ही दूध बताया गया है। इस प्रकार भैस की स्पर्धा मे गाय के दूध को एक षडयन्त्र के नाते केवल चिकनाई को पैमाना बनाकर हीन बना दिया गया है।

उत्तर भारत में तो भैंस से स्पर्धा हुई परन्तु दक्षिण में और शेष भारत में गाय ही अधिक थी। गाय भैंस से दूध मे भले ही पिछड़ गई परन्तु गाय के बछड़े बैल बनकर अच्छे दाम पर बिक जाते हैं इसलिए गांव में गोपालन उत्तर भारत में कम दूध होने पर भी चालू रहा। बछड़ा ब्याहने पर गाय का मूल्य केवल बछड़े के कारण दुगना तक हो जाता था।

गोपालन और गांव का विकास-
गांव में गोपालन पर मार पड़ी ट्रैक्टर के आने से। ट्रैक्टर आ गए तो बैल अनुपयोगी दिखने लगे। बैल पालने और दिन रात उनके चारे के लिए प्रबन्ध करते रहो, इस झंझट से मुक्ति पाने के लिए बड़े किसानों ने अपने ट्रैक्टर खरीद लिए और छोटे किसान ट्रैक्टर वाले से किराये पर खेत जुतवाने लगे। इस ट्रैक्टर के आगमन ने गांव के पूरे कार्यचक्र को तोड़ दिया। गाय थी बैल थे तो गाँव में रोजगार था। बढ़ई लोहार, चर्मकार, चरवाहा सभी किसान के हल के साथ जुड़े हुए थे।

बढ़ई हल बनाता था, बैलगाड़ी बनाता था। लोहार हल के आगे का फल बनाता था, चर्मकार मरे हुए जानवरों के चमड़े से जूते बनाता था। चरवाहा जानवरों को पास के जंगल मे चराने के लिए ले जाता था। परन्तु अब तो किसान खुद ही बेकार हो गया है। खेती में अब तो केवल फसल बोते समय ही अधिक काम होता है और शेष समय तो घर-परिवार के लोग ही खाली हो गये। इस प्रकार गोवंश का गांव से निष्कासन होने के साथ-साथ जनता का भी गांव से शहर की ओर रोजगार के लिए पलायन शुरू हो गया है।

ट्रैक्टर की खेती से एक ओर तो बेरोजगारी फैली दूसरे पशुओं के न रहने से खाद की कमी महसूस की जाने लगी है। खाद के लिए सरकार ने यूरिया आदि रासायनिक खादों के उपयोग की सिफारिश की। शुरू मे रासायनिक खादों से जमीन की फसल मे आशातीत वृद्धि हुई। तत्कालिक लाभ ने पुराने सिस्टम को तोड़ने में सहायता दी।

गोपालन में कमी के दुष्परिणाम-
कुछ ही वर्षों बाद इसके दुष्परिणाम भी प्रारम्भ हुए। ट्रैक्टर की जुताई से ट्रैक्टर के पहिये के बोझ से जमीन में पलने वाले केचुआ आदि शनै: शनै: मरने लगे। उधर यूरिया आदि गरम खादों के कारण भी लाभकारी जीवाणु मरने लगे और रासायनिक खादों के कारण भी हानिकारक जीवाणु खेती की फसल को नुकसान पहुंचाने लगे। इससे फसल के पकने से पूर्व ही कीड़ा लग जाता है। इसे रोकने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। फसल जैसे ही पकने के लिए तैयार हो, उस पर कीटनाशक का छिड़काव किया जाने लगा।

पहले खेत में गोबर की खाद पड़ती थी उसमें एक ओर तो धरती की उर्वराशक्ति कायम रहती थी। दूसरे उसमें प्राकृतिक रूप् से कीटों से बचाव की अदृभुत क्षमता थी। अब कीटनाशकों के प्रयोग से फसल को कीटों से तो बचाया गया परन्तु फसल के उत्पाद पर जो कीटनाशक रसायनों का प्रभाव हुआ वह अधिक नुकसानदायक साबित होने लगा।

आज उन उत्पादों- टमाटर, बैगन आदि को खाने वालों को उन रसायनों के दुष्प्रभाव से बचाना कठिन हो रहा है। आज से तीस चालिस वर्ष पूर्व किसी गांव में आपको शायद ही कोई रक्तचाप, हृदय रोग या कैंसर का रोगी मिल जाए। आज शहरों के साथ गांव में भी इस प्रकार की जानलेवा बीमारियों के रोगी मिल सकते हैं। विचारकों का कहना है यह खेती पर छिड़काव किए जाने वाले कीटनाशकों के जहर का प्रभाव है। मानव के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों तथा धरती की उर्वराशक्ति के निरन्तर कम होने के कारण अब समाज में आर्गेनिक खेती की मांग उठने लगी है। आर्गेनिक खेती अर्थात गोबर आदि प्राकृतिक खाद से होने वाली खेती, जिसमें रासायनिक खादें तथा कीटनाशकों का प्रयोग न किया गया हो।

इस प्रकार गाय के बिना खेती से किस प्रकार तबाही हो रही है, यह परिणाम ही बता रहे हैं। लाखों करोड़ की सबसिडी पहले सरकार रासायनिक खाद कम्पनियों को देती है उसके बाद भी किसान को खेती इतनी मंहगी हो गई है कि वह उससे भरपेट भोजन नहीं प्राप्त कर पाता। वह निरन्तर कर्ज के बोझ तले दबता जा रहा है। सरकार समय समय पर कर्ज माफ भी करती है परन्तु फिर भी उसे अपनी आर्थिक मजबूरियों के कारण आत्महत्या करनी पड़ती है। अब तो किसानों की आत्महत्या इतनी आम हो गयी है कि वह खबर भी नहीं बनती।

इस तरह एक गाय के कृषि चक्र से बाहर हो जाने पर न केवल धरती बंजर हो रही है। मानव के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया है, मानव के स्वास्थ्य और सुख शान्ति पर गंभीर संकट आ गया है। इसलिए आज पुन: गाय की महत्ता की बात लोगों को समझ में आने लगी है। गोग्राम यात्रा का इसीलिए गावों में अधिक स्वागत हो रहा है।

गाय की उपयोगिता आर्थिक दृष्टि से कम करने में जर्सी गाय ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जर्सी गाय अधिक दूध देती है, देसी गाय कम दूध देती है, इस तुलना में देसी गाय की अपेक्षा जर्सी गाय के दूध को व्यवसाय की दृष्टि से लाभप्रद बताया गया। इस कारण भी भारत की गाय को पालने में ग्वाले पीछे हट गये यद्यपि जर्सी गाय का बैल खेती के लिए उपयोगी नहीं होता। लेकिन डेरी फार्म का व्यवसाय करने वालों को देसी गाय की अपेक्षा जर्सी गाय अधिक प्रिय रहीं।

लेकिन आज वैज्ञानिक शोधों ने सिद्ध किया है कि स्वास्थ्य और औषधीय दृष्टि से जो तत्व देसी गाय के दूध में हैं उससे बहुत कम मात्रा में जर्सी गाय में है, इसलिए अब तो जर्सी गाय को भारत की गाय कहने में ही संकोच होता है। गो-मूत्र की दृष्टि से भी जर्सी उपयोगी नहीं ठहरती। गो-मूत्र में जो कैंसर तक को ठीक करने के औषधीय गुण है, वह जर्सी गाय के मूत्र में नहीं है।

गो ग्राम यात्रा और गाय की उपयोगिता-
जैसे ठोकर लगने पर ही व्यक्ति सीखता है। वैसे ही गाय की उपेक्षा से जो पूरे समाज का स्वस्थ्य-चक्र बिगड़ा उसने भी पुन: गाय की ओर लौटने के लिए समाज को प्रेरित किया है। ऐसे समय पर गो-ग्राम यात्रा ने समाज में व्याप्त कुण्ठा को समाप्त कर उसे पुन: गाय की ओर लौटने के लिए एक एक मंच प्रस्तुत किया है। यह यात्रा वास्तव में समाज में व्याप्त असमंजस की स्थिति से निकलने का एक मार्ग सुझाती है। जैसे स्वामी रामदेवजी का योग चार पांच वर्षों में प्रचारित हो गया उसका एक कारण यह भी है कि लोग ऐलोपैथी की दवाएं खाकर हताश और निराश हो चुके थे उन्हें रामदेवजी के योग में एक आशा की किरण दिखाई दी और लोग उनके पीछे एकजुट होने लगे। 

अब इसमें दो मत नहीं है कि गाय की उपयोगिता को जानकर लोग गोपालन में रुचि लेंगे। जितना अधिक प्रचार गाय की उपयोगिता को तर्क के साथ समझाने की कोशिश की जाएगी। उतना ही लोग गाय के प्रति उन्मुख होंगे। नगरों में गाय का दूध उपलब्ध हो इसकी व्यवस्था सरकारी या गैर-सरकारी स्तर पर की जानी चाहिए। यदि व्यवस्था हो और लोगों को गाय के दूध की उपयोगिता का सही ज्ञान कराया जाए तो लोग भैंस के दूध से अधिक दाम देकर गाय का दूध लेना चाहेंगे।

आज मुख्य प्रश्न दूध की उपलब्धता का है। गाय लोग घर पाल सकें इसके लिए गाय की मण्डी उपलब्ध हो जहां से गाय खरीदी जा सके। आज उत्साह में कोई गाय पालना भी चाहे तो उसे गाय मिलती नहीं। इन कामों की व्यवस्था की गई तो लोगों की गाय में रुचि उत्पन्न होने लगेगी। अन्यथा गो ग्राम यात्रा केवल आन्दोलन का रूप लेकर समाप्त हो जाएगी।

गाय और भैस के दूध की तूलना की प्रयोगशाला की रिपोर्टों को सार्वजनिक किया जाना चाहिये। देसी गाय और जर्सी गाय की गुणवत्ता के भी अन्तर को शोधों के आधार पर प्रचारित किया जाना चाहिए। गाँव की दृष्टि से आर्गेनिक खेती के लिए वातावरण बना है परन्तु जो किसान गोबर की खाद से खेती करे उसके कारण आरम्भ में भी कम उपज होगी उसकी भरपाई के लिए उसकी उपज के विक्रय की भी व्यवस्था होनी चाहिये।

यदि इस प्रकार के व्यावहारिक बिन्दुओं को सोचकर कदम उठाए जाएंगे तो गाय का दूध अपनी स्वयं की शक्ति से स्वत: ही समाज में अपना स्थान बना लेगा। गाय यदि उपयोगी हो जाएगी तो वह किसी भी कारण से कत्लखाने तक नहीं पहुँचेगी। गोमूत्र के ऊपर जो अनुसंधान हुए हैं उससे लोगों में गोमूत्र के बारे में उत्सुकता जागृत हो गयी है। अब गोमूत्र बिकने लगा है। यदि उसकी पूरी व्यवस्था हो जाय तो गोसदन एव गोशालाएं आत्मनिर्भंर हो जाएगी, उन्हें दान की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। गाय की उपयोगिता को तर्कों के आधार पर लोगों में प्रचारित किया जाए और उन्हें दूध प्राप्त करने के लिए व्यवहारिक सुविधा प्रदान की जाए। गाय स्वयं ही बच जाएगी। गौ के तेज में बहुत शक्ति है। वह समय आ गया है जब गाय अपना वर्चस्व प्रसारित करेगी और पुन: सच्चे अर्थों में माँ का स्थान प्राप्त कर लेगी।

प्रस्तुति- वीएचवी ब्यूरो/4 जनवरी 2010

3 comments:

ASHOK BAJAJ said...

बहुत बढ़िया पोस्ट

tarun said...

BBAT SAHI HAI GAAY KE KAM HONE SE DESH KA VINASH SURU HO GAYA HAI YADI GAAY BACHEGI TABHI DESH BACHEGA

Bhanwar Jeet said...

I need monthly magazine at my home about cow.